SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृत्तिकार अभयदेवसूरि रिषभदास रांका, पूना २ संस्कृति के विकास में अनेक महापुरुषों के प्रयत्न तथा सेवाऐं काम में लगी हैं आज जिस रूप में हम संस्कृति को पा रहे है उस रूप में रखने तथा उसका विकास करने में अनेकों के परिश्रम तथा शक्ति लगी है। जैन संस्कृति को जिस रूप में आज हम देखते हैं उसको अक्षुण्ण रखने में जिन महापुरुषोंने अपनी सेवाएं और शक्ति का उपयोग किया हैं उन महापुरुषों में से अभयदेवसूरि भी एक थे । ज्ञान और चारित्र का जिन में सुमेल हो और जिनकी कहनी-करनी एकसी हो ऐसे लोग बहुत कम पाये जाते हैं । पर जिनका ज्ञान आत्मविकास और आत्म-साधना के लिए होता है वे अपने ज्ञान को आचरण में लाकर भी अनुभव प्राप्त करते हैं, उसे वे लोगों के सन्मुख रखते हैं। वह अनुभवजन्य ज्ञान, फिर जिस में राग की मात्रा कम हो, निसंदेह हितकर ही होता है। अभय देवसूरि ऐसे साधकों में से थे । उन्होंने जैन ही नहीं, पर वेदवेदांगों का भी गहराई के साथ अध्ययन किया था। आचारप्रवण व्यक्तियों में ज्ञान और उदारता बहुत कम पाई जाती है, पर अभयदेवसूरि में ज्ञान, चारित्र और अनुभवव्यापकता का सुंदर सुमेल था, जिससे उनके द्वारा यह महान कार्य हो सका। उनका जन्म उस समय हुआ था जिस समय चैत्यवासी संपदाय का प्राबल्य था । जैन धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए आचार में कुछ शिथिलता लाई गई थी। मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, नैमित्तिक शास्त्र की सहायता लेकर श्रमण जैन धर्म को बढ़ाने का प्रयत्न कर रहे थे। राजाश्रय तथा राजसत्ता के बल का धर्मप्रचार में उपयोग किया जा रहा था। मंदिरों की व्यवस्था करनेवाले पूजारी और व्यवस्थापक लोग जो मंदिरों के धन का दुरुपयोग करने लग गए थे उनकी व्यवस्था अपरिग्रही साधुओंने ली और वे व्यवस्था करने लग गए थे । त्यागी वर्ग के हाथ में व्यवस्था लेने का उद्देश्य भले समाज हित का रहा हो, पर परिग्रह का स्वभाव ही ऐसा है कि वह उपयोग करने वाले को नीचे गिराता ही है और यही बात चैत्यवासी संप्रदाय के विषय में हुई। परिग्रह का मंदिरों के लिए उपयोग करनेवाले त्यागी उसका उपयोग अपने उपभोग के लिए भी करने लग गए थे। आचार की शिथिलता के पक्ष में शास्त्रवचनों का उपयोग होने लग गया था। इन चैत्यवासी (५८)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy