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________________ और जैनाचार्य मालव-मनीषी श्री प्रभाचन्द्रसूरि । ४६१ उनके ग्रन्थों की गाथाएं तथा पूज्यपादकृत जैनेन्द्र व्याकरण के कुछ सूत्र प्रभाचन्द्र ने अपने ' प्रमेयकमलमार्तण्ड ' में उद्धृत किये हैं। इस कारण प्रभाचन्द्र इनसे पूर्व नहीं हो सकते । परंतु पूज्यपाद का समय पांचवीं शती है । इसके बाद इनके ग्रन्थ से कोई उद्धरण ले तो विस्मय का कारण नहीं । न प्रभाचन्द्र को पीछे होने की आवश्यकता ही है । इसी प्रकार नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती का समय भी इन्हीं विद्वान् ने १०३४ माना है, पर वह समय भी ठीक नहीं मालूम होता । नेमिचन्द्र चामुण्डराज के समय में हुए हैं। चामुण्डराज वि. सं. ७३५ में हुआ है । इन भ्रांत आधारों पर प्रभाचन्द्र को ११-१२ वीं शती में समझना उचित नहीं है । " इसी प्रकार दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता पुस्तक में प्रभाचन्द्र को ४५३ का बतलाया गया है । किन्तु प्रभाचन्द्रने बाण की कादम्बरी से - 'रजोजुषे जन्मनि सत्ववृत्तये ' यह श्लोक उद्धृत किया है । यह प्रसिद्ध था। इसी की सभा में बाण कवि था । छट्ठी सदी के में प्रभाचन्द्र कैसे उपयोग में ला सकते थे ? यह भी स्पष्ट असंगति है 1 है कि श्रीहर्ष का शासन ई. सं. ५४४ में बाण कवि के उद्धरण को चौथी सदी ' प्रमेयकमलमार्तण्ड ' में भर्तृहरि के व्याकरण का एक श्लोक मिलता है । ' नसोस्ति उभयोलोके यः शब्दानुगमादृते ' , प्रो. पाठकने व्याकरणकार भर्तृहरि का समय ६५० माना है। चीनी यात्री हुएनत्संगने ६२९-६४५ में भारत- प्रवास किया था। उसने उस समय भर्तृहरि को व्याकरणकर्ता के रूप में प्रसिद्ध होना सूचित किया है। यदि ६५० भी भर्तृहरि का समय समझ लिया जावे तो दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता की सूचना में दोसौ वर्ष से ऊपर की भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है । प्रभाचन्द्रने भर्तृहरि और कुमारिल भट्ट का भी उल्लेख किया है । संभवतः वे उनके समकालीन हो ! परंतु पूर्ववर्ती कदापि नहीं । जो कुछ भी । धारानगरी में भोजराज के समय जो देश-विदेश से अनेक प्रतिभाशाली विद्वान् एकत्रित होते थे, और धारानगरी की राजसभा विद्वत्सभा के रूप में सुशोभित होती थी, उसी सभा के प्रतिभाशाली पण्डित प्रभाचन्द्र भी थे। उनकी रचना जहाँ न्यायशास्त्र के लिये अलंकारभूत है, वहाँ मालवभूमि की यशोगाथा की उज्ज्वल परम्परा भी प्रतिपादित करनेवाली है । मालव के यशस्वी विद्वानों में प्रभाचन्द्रसूरि का नाम सुवर्ण वर्णों से अंकित रहेगा । उनके ' प्रमेयकमलमार्तण्ड ' द्वारा न्याय साहित्य समृद्ध बना है । 1 विद्वान् लेखक का हस्तलेखन अत्यन्त ही अस्पष्ट होने से जहाँ नितांत अपठ्य था, वहाँ हमने पूर्ति करने की भ्रष्टता न करते हुये X (चिह्न) लगा दिया है । संपा० दौलतसिंह लोढ़ा.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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