SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और जैनाचार्य विमलार्य और उनका पउमचरियें । ४४१९ I मान्य करते हैं । उनके इस कथन का कि 'जैन मुनि विमलसूरिने प्रथम शती ई० के उत्तरार्ध में ही अपने पउमचरिय नामक प्राकृत काव्य द्वारा रामाख्यान का पुनरुद्धार किया था' स्पष्ट कारण यह है कि वे महावीर निर्वाण की जैकोबीद्वारा निर्धारित तिथि ४७७ ई० पू० ( अथवा ४६७ ई० पू० ) मान्य करते थे। इसके विपरीत डा० जैकोबी, वुल्नर, कीथ, के. बी. ध्रुव, हरिदास शास्त्री, वी. एम. शाह आदि विद्वान् तथा उनके आधार पर अधिकांश वर्तमान इतिहासज्ञ इस तिथि को अमान्य करते हैं") और पउमचरिय का रचनाकाल २ से लेकर ८ वीं शती ई० पर्यंत विभिन्न कल्पों में अनुमान करते हैं । इन विद्वानों के तर्कों के सारांश हैं कि (१) परमचरि के कर्त्ता प्रश्नोत्तर रत्नमाला के कर्त्ता विमलसूरि से अभिन्न हैं । ( २ ) पउमचरिय विषेण के संस्कृत पद्मचरित का उस के उपरांत किया गया प्राकृत रूपान्तर हो, यह संभव है । (३) ग्रन्थ में प्रयुक्त छन्दों की दृष्टि से वह ६ठी ७वीं शती से पूर्व की रचना प्रतीत नहीं होती (४) भाषा की दृष्टि से वह ४थी या ५वीं शती ई० की रचना प्रतीत होती है । (५) इस ग्रन्थ में यवनों तथा ज्योतिषशास्त्र संबंधी कुछ यूनानी शब्दों, तथा कतिपय नक्षत्रों के नाम, लग्न, सुरुंग आदि का प्रयोग, रोमन शब्द दीनार का तथा शकों का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि यह ग्रन्थ दूसरी अथवा तीसरी शती ई० से पूर्व का नहीं हो सकता । (६) विमलार्य ने अपना गुरुवंश ' नाइल ' सूचित किया है और कल्पसूत्र थेरावलि के अनुसार नाइली शाखा का उदय पहली शती ई० के अन्त के लगभग हुआ प्रतीत है, अतः पउमचरिय दूसरी शती ई० के मध्य से अधिक पूर्व की रचना नहीं हो सकती । (७) ग्रन्थ पर कुन्दकुन्द और उमास्वामि की रचनाओं का प्रभाव लक्षित होता है । अतः वह दूसरी शती ई० से पूर्व का नहीं हो सकता । ( ८ ) ग्रन्थ में एक स्थान पर " सियंवर' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो श्वेतांबर सम्प्रदाय का सूचक प्रतीत होता है, अतः उसकी रचना दिगम्बर श्वेतांबर संघभेद ( ७९-८३ ई० ) के पूर्व की नहीं हो सकती । ( ९ ) विमलार्य द्वारा प्रयुक्त महावीर निर्वाण संवत् ५२७ ई० पू० में प्रारंभ होनेवाला प्रचलित निर्वाण संवत् नहीं हो सकता, वरन किसी अन्य भ्रमपूर्ण आधार पर आधारित महावीर संवत् है । ( १० ) महावीर निर्वाण ५२७ ई० पू० में नहीं वरन् ४७७ ई० १२. हिस्टरी आफ इंडियन लिटरेचर, जि. २. १३. अभी हाल में ही कुछ शीर्षस्थानीय भारतीय इतिहासज्ञ विद्वानों का मत इस विषय में जानने का संयोग हुआ था। वे जैकोबी आदि के मत को ही प्रमाण करते हैं और उसके विरुद्ध जाने का साहस नहीं करते ५६
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy