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________________ भीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागमः होता है, यद्यपि रविषेणने इस बात का अथवा विमल या उनके ग्रन्थ का अपने पग्मचरित में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। इस में भी सन्देह नहीं है कि रविषेण के पद्मचरित ने विमल के पउमचरिय को आच्छादित कर दिया । इस नवीन एवं अपेक्षाकृत विशद तथा विस्तृत संस्कृत रचना ने विमल के संक्षिप्त प्राकृत प्रन्ध को विस्मृतप्रायः कर दिया और उसका प्रचार अवरुद्ध हो गया। जैन परंपरा में रामकथा की एक दूसरे से कुछ भिन्न दो धाराएँ प्राप्त होती हैं । प्रथम धारा का मूलाधार विमलार्य का पउमचरिय ही प्रतीत होता है, जिसे रविषण के ललित संस्कृत ग्रन्थने अधिक लोकप्रिय बना दिया । स्वयंभू की अपभ्रंश रामायण, हेमच. न्द्राचार्य के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के सातवें पर्व में वर्णित रामकथा, देवविजय के रामचरित्र ( १५९६ ई०), पं. दोलतराम के हिन्दी पद्मपुराण ( १८ वीं शती ) आदि प्रन्थों में जैनी रामकथा की इसी धारा को अपनाया गया है । दूसरी धारा की उपलब्धि गुणभद्र के उत्तरपुराण (लगभग ८७५ ई०) के ६८ वें पर्व में वर्णित रामचरित्र में होती है और इसका मूलाधार कवि परमेष्टी का वागार्थसंग्रह (ल० ४ थी शती ई०) रहा प्रतीत होता है। जैनी रामकथा के इस रूप को पुष्पदंतने अपने अपभ्रंश महापुराण (१० वीं शती), चामुंडरायने अपने कन्नड पुराण (१० वीं शती ), मल्लिसेनने अपने महापुराण ( ११ वीं शती) में तथा अन्य उत्तरवर्ती महापुराणकारोंने अपनाया। किन्तु रामकथा का यह रूप उतना लोकप्रिय एवं प्रचारप्राप्त कमी न हो सका जितना विमल और रविषेण की कथाका । पउमचरिय के प्रकाश में आने के उपरान्त पिछले कई दशकों में अनेक प्रख्यात जैन-अजैन, पाश्चात्य पौर्वात्य प्राच्यविदों एवं विद्वानों ने उसके संबंध में पर्याप्त ऊहापोह किया है। कुछने भाषयिक एवं साहित्यिक दृष्टि से इस प्रन्थ का अध्ययन किया, तो कुछ ने सांस्कृतिक या ऐतिहासिक दृष्टि से तथा कुछ ने धार्मिक वा साम्प्रदायिक दृष्टि से | सबसे अधिक मतभेद इस प्रन्थ की रचनातिथि के संबंध में है। डा. ल्यूमेन स्वयं विमलार्य द्वारा प्रदत्त वी. नि. सं. ५३० (सन् ३ ई०) की तिथि को निर्विवाद रूप से ठीक मानते हैं । पं. नाथूराम प्रेमी को भी उसे ठीक मानने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती । पं. हरगोविन्दास पउमचरिय को विक्रम की पहली शती की रचना मानते हुए इसी तिथि का समर्थन करते है," और प्रो. विन्टरनिट्ज भी इसी तिथि को ९. पउमचरियम्, वी एम. शाह, सूरत, १९३६ ई. भूमिका पृ० ५ १०. अनेकान्त. व. ५. कि १-२ पृ. ३८-४८ ११. देखिए फुटनोट ९.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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