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________________ और जैनाचार्य श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली। मत था कि दक्षिण की यात्रा करनेवाले द्वितीय भद्रबाहु थे। दिगम्बर पट्टावली में उनके शिष्य का नाम गुप्तिगुप्त लिखा है । डा. प्लीट का कहना था कि गुप्तिगुप्त का ही नामान्तर चन्द्रगुप्त है। किन्तु डा. ल्युमैन, डा. हानले, श्री. टॉमस, डा. स्मिथ, मि. राईसे और श्री जायस्वाल श्रुतकेवली भद्रबाहु के ही पक्ष में थे । और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को ही उनके साथ जानेवाला मानते थे। अस्तु । श्वेताम्वर परम्परा में हेमचन्द्राचार्यने अपने परिशिष्ट पर्व (सर्ग ९) में भद्रबाहु के युगप्रधान काल में मगध में बारह वर्ष के भयंकर दुर्मिक्ष पड़ने का कथन किया है तथा मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त को उनका समकालीन बतलाया है। उसमें लिखा है कि उस भयंकर दुष्काल में जब साधुओं को भिक्षा मिलना कठिन हो गया तब साधु लोग निर्वाह के लिये समुद्र के तट की ओर चले गये। भद्रबाहुस्वामी नेपाल की ओर गये थे और वहां उन्होंने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की आराधना की थी। सुभिक्ष होने पर जब साधुसंघ मगध में लौट कर आया तो जिसको जो याद था उसको लेकर ग्यारह अंगों की संकलना की गई। परन्तु दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का ज्ञाता वहां कोई नहीं था। तब संघने दो मुनियों को भद्रबाहुस्वामी को बुलाने के लिये भेजा । मुनियोंने जाकर निवेदन किया कि संघ का आदेश है कि आप मगध में पधारें । भद्रबाहुने कहा-"मैंने महाप्राण नामक ध्यान आरम्भ किया है जो बारह वर्षों में समाप्त होगा, अतः मैं नहीं जा सकता।" मुनियों ने लौट कर संघ से उक्त बात निवेदन कर दी। तब संघने पुनः दो मुनियों को भद्रबाहु के पास भेजा और उनसे कहा कि तुम जा कर उनसे पूछना कि जो श्री संघ का शासन नहीं माने उसे क्या दण्ड देना चाहिये ! जब वे कहें कि उसे संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिये तो तुम उनसे जोरपूर्वक कहना कि आप इसी दण्ड के योग्य हैं। दोनों मुनियोने जाकर भद्रबाहु से उक्त प्रश्न किया और उन्होंने भी उक्त उत्तर दिया। तब १. वियना ओरियन्टल जर्नल, जि. ७, पृ. ३८२ । २. इन्डियन ऐन्टिक्वेरी, जि. २१, पृ. ५९-६० । ३. अली फेथ ऑफ अशोक, पृ. २३ । ४. आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पृ. ७५-७६ । ५. इन्सक्रिपशन्स ऑफ श्रवणवेलगोल की भूमिका । ६. जर्नल ऑफ विहार उडीसा रिसर्च सोसायटी जि. ३ । ७. श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेपाल में होनेका उल्लेख आवश्यकचूर्णि जैसे प्राचीन ग्रन्थों में मिलने से अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है- संपा. श्री नाहटाजी
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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