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________________ ४३० भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम १६-१७ वीं शती के रत्ननन्दि भद्रवाहुचरित में भी उक्त कथा के अनुसार ही भद्रबाहु का जीवनचरित दिया है। कथा से उसमें इतनी विशेषता है कि चन्द्रगुप्त महाराज १६ स्वप्न देखते हैं और भद्रबाहु से उनका फल पूछ कर जिनदीक्षा ले लेते हैं तथा भद्रबाहु संघ के साथ दक्षिण की ओर विहार करते हैं । चन्द्रगुप्त भी उनके साथ जाते हैं। मार्ग में एक गिरिगुहा में भद्रबाहु समाधिपूर्वक प्राण त्याग करते हैं । चन्द्रगुप्त उनके चरणारविन्दों की पूजा करते हुए वहीं रहते हैं और जब विशाखाचार्य दक्षिण से लौटते हैं तो चन्द्रगुप्त उनसे मिलते हैं । इस चरित में राजा का चन्द्रगुप्ति नाम दिया है । कन्नड़ भाषा के चिदानन्द कविकृत मुनिवंशाभ्युदय में तथा देवचन्द्रकृत राजावलि कथा में भी भद्रबाहु का चरित वर्णित है । मुनिवंशाभ्युदय में लिखा है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु बेलगोला आये और चिकवेट्ट (चन्द्रगिरि ) पर ठहरे। एक व्याघ्रने उन पर धावा किया और उनका शरीर विदीर्ण कर डाला । उनके चरणचिह्न अवतक गिरि की एक गुफा में पूजे जाते हैं। इस प्रकार हरिषेण कथाकोश के सिवाय अन्य ग्रन्थों में भद्रबाहु की दक्षिण यात्रा तथा दक्षिण में ही उनका स्वर्गवास बतलाया है। श्रवणबेलगोला में स्थित चन्द्रगिरि पर पार्श्वनाथ वस्ति के पास एक शिलालेख है जो वहां के समस्त शिलालेखों में प्राचीन माना जाता है। उसमें लिखा है-' महावीरस्वामी के पश्चात् परमर्षि गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोण्डिल, कृत्तिकार्य, जय, सिद्धार्थ, घृतिषण बुद्धिल आदि गुरु-परम्परा में होनेवाले भद्रबाहुस्वामी के त्रैकाल्यदर्शी निमित्तज्ञान द्वारा उज्जयिनी में यह कहे जाने पर कि वहां बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़नेवाला है, सारे संघ ने उत्तरापथ से दक्षिणापथ को प्रस्थान किया और वह एक समृद्ध जनपद में ठहरा । भद्रबाहु. स्वामी संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा देकर आप प्रभाचन्द्र नामक एक शिष्य के साथ कटवा पर ठहर गये और उन्होंने वहां समाधिमरण किया । दिगम्बर पट्टावलियों के अनुसार श्रुतकेवलि भद्रबाहु के सिवाय एक भद्रबाहु और हुए हैं, जिनसे सरस्वती गच्छ की नन्दि संघ पट्टावली प्रारम्भ होती है। उक्त शिलालेख से भी यही व्यक्त होता है कि दूसरे भद्रबाहु दक्षिण गये थे। किन्तु वहीं के शिलालेख नं. ४०, ५४ और १०८, श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त को गुरुशिष्य बतलाते हैं। एक समय भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त को लेकर पाश्चात्य विद्वानों में खूब ऊहापोह चला था। डा. प्लीट का १. चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्न देखने और भद्रबाहु का इनके फल के प्रतिपादन करने की कथा ज्यादा प्राचीन नहीं है। इसके सम्बन्धमें मुनि कल्याणविजयजीने उक्त ग्रन्थमें विचार किया है। संपा. श्री नाहटाजी. २. देखो, जैन शिलालेखसंग्रह; मा. ग्रं. मा. बम्बई ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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