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________________ और जैनाचार्य श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली । ४२९, कौशल को देखा। उन्हें लगा कि वह बालक चतुर्दशपूर्वधर बनेगा। उन्होंने उसे उसके पिता से मांग लिया और पढ़ा लिखाकर सुशिक्षित किया। शिक्षित होने के पश्चात् भद्रबाहु अपने पिता के पास चला गया और उनकी आज्ञा लेकर पुनः गुरु के पास लौट आया और मुनिदीक्षा लेकर साधु होगया। गोवर्धनाचार्यने उन्हें चतुर्दशपूर्व का पाठी बनाकर समाधि लेली। उक्त कथाकोश का रचनाकाल शक संवत् ८१३ है। विक्रम की १६-१७ वीं शताब्दी के रचित भद्रबाहुचरित में भी उक्त आख्यान इसी रूप में पाया जाता है। संभव है उसकी रचना कथाकोश में प्रदत्त भद्रबाहु कथा के आधार से ही की गई हो । साधुजीवन__श्रुतकेवली भद्रबाहु के साधुजीवन के विषय में उक्त कथाकोश में लिखा है एक वार श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने विशाल संघ के साथ भ्रमण करते हुए उज्जैनी नगरी में आये । उस समय उस नगरी का राजा चन्द्रगुप्त था । वह एक सम्यग्दृष्टि श्रावक था । एक दिन भद्रबाहु आहार के लिये निकले । एक घर में एक शिशु पालने में लिटा था। उस शिशुने भद्रबाहु से शीघ्र चले जाने के लिये कहा। उसके वचनों को सुनकर दिव्य ज्ञानी भद्रबाहु विचार करने लगे। उन्हें प्रतीत हुआ कि इस देश में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ेगा। उस दिन उन्होंने आहार नहीं लिया और बिना भोजन लिये लौट आये। लौट कर उन्होंने संघ से कहा कि इस देश में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ेगा। मैं अल्पायु हूं, इस लिये यहीं रहूंगा । आप लोग यहां से समुद्र के तट की ओर चले जावें । इस बात को सुनकर राजा चन्द्रगुप्तने भद्रबाहु से जिनदीक्षा ले ली। वे दशपूर्वी हुए और विशाखाचार्य नाम से समस्त संघ के स्वामी बने । तत्पश्चात् भद्रबाहु की आज्ञानुसार समस्त संघ विशाखाचार्य के साथ दक्षिण देश को चला गया । और भद्रबाहुस्वामीने उज्जैनी के भाद्रपद देश में अनशनपूर्वक शरीर त्याग दिया। . इसके पश्चात् कथामें दक्षिण गये संघ का प्रत्यावर्तन, उत्तर भारतमें रह गये संघमें दुर्भिक्षके कारण शिथिलाचारिता का प्रवेश, अर्घस्फालक सम्प्रदायकी उत्पत्ति आदि का वर्णन है । १. श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ सम्राट चन्द्रगुप्त के दीक्षा लेने आदि के सम्बन्ध में मुनि कल्याणविजयजीने वीर निर्वाण सम्वत और जैन काल-गणना के पृष्ठ ७३ में विचार करते हुए लिखा है कि यदि भद्रबाहुने दक्षिण की यात्रा की हो तो वे द्वितीय भद्रबाहु ही हो सकते हैं। सरस्वती गच्छ की नन्दी आम्नाय की पट्टावली के अनुसार नैमित्तिक द्वितीय भद्रबाहु ईस्वीसन से ५३ वर्ष और शक सम्वत् से ३१ वर्ष पूर्व हुए। वे ही दक्षिण में गये होंगे। चन्द्रगुप्त को शिष्य बताया है। २. भद्रबाहु का स्वर्गवास मुनि कल्यागविजयजी क उक्त ग्रन्थानुसार पूर्व देश-बंगाल में ही हुआ था। संपा० श्री नाहटाजी.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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