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________________ और जैनाचार्य तीर्थङ्कर और उसकी विशेषतायें । प्रकार बनूं ! सच्चा सुख संसार में नहीं, दुरंगी दुनियां के झूठे और थोथे प्रलोभनों में सच्चा सुख कहाँ ! वह तो आत्मा का गुण सा अमूल्य प्रतिनिधि है, जिसे आत्मा-आत्मा के स्वरूप को पहिचान कर ही प्राप्त कर सकती है । वास्तविक सुख तो कर्मों को पराजित करने के बाद-होनेवाले सच्चे आत्मकल्याण से मिलेगा।' संसृति की पथच्छाया को पकड़ने का प्रयास निष्फल है । छाया पकड़ने से हाथ में नहीं आती, हताश ही होना पड़ता है । सुख संग्रह में नहीं, त्याग में है । त्याग से ही वृद्धि शक्य और सम्भव है । मुट्ठी में संग्रह करलेने पर तो मुट्ठी भर ही रह जावेगा और उसे ही मुक्त हस्त से वितरण कर देने पर वह कई गुनी वृद्धि प्राप्त करेगा और हम उसकी रक्षा की ओर से निश्चित हो सकेंगे। संसार में सुभग शरीर तक नश्वर है, नित्य नहीं-अनित्य है। संसृति की समृद्धि भी मृत्यु के समय शरण नहीं देती। जीवित अवस्था में जो तन-मन-धन सर्वस्व न्यौछावार करने के लिये प्रस्तुत रहते हैं वे ही मृत्यु अवस्था में शरीर को एक क्षण भी पड़े रहने देना उचित नहीं समझते । संसार की समृद्धि और परिजन का प्रेम भी साथ नहीं जाता । अपना धर्म और कर्म ही अपने हाथ तथा साथ रहता है । संसार का जीवन तो अनेक छल-छिद्रोंसे भरा है। 'टका बिन टकटकायते' लोकोक्ति के रहस्यवाद में ही संसार के व्यवहार का विज्ञान अन्तर्हित है और जो स्वार्थसिद्धि की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई भावनायें लिये हुये हैं। __दुरंगी दुनियां की दो जिह्वायें हैं, दो नीतियां हैं । जब जीवात्मा अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है तो फिर इस एकाकी जीवन को साथी बना कर सुखी होने का असफलतामय मोह नितान्त निस्सार है । और जो मुमुक्षु के लिये तो सर्वथा ही अवांच्छनीय है । जब जीवन में समीप ही साथी होगा तो उसके लिये हृदय में वह मोह भी होगा, जो मोहनीय* कर्म का कारण बन कर संसार में जीवात्मा को स्वरूप भुला कर उसकी उन्मत्त कीसी अवस्था कर देगा और जिससे जीवात्मा हिताहित, स्व-पर भेदाभेद का विज्ञान नहीं समझ कर जन्म-जरा-मरण आदि अनेक दुःख उठाया करेगा। ___जब देह तक अपनी नहीं तो प्रत्यक्ष में पृथक् दीखनेवाले सचेतन-अचेतन की आशा ही क्या ! देह आत्मा नहीं, आत्मा देह नहीं है । मूल कर के भी भ्रम में पड़ना भव को बाँधना है। जिस देह की अशुचिता से सारे संसार के पदार्थ अशुचितामय हो जाते हैं उसी देह को स्नान, * ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म हैं। इनमें मोहनीय प्रमुख है। इसका स्वभाव सुरा-सुन्दरी सा है और इसकी स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर (अन्य कर्मों से कई गुनी) कही गई है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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