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________________ १२० भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ. जिन, जैनागम विलेपन आदि से शुचितामय बनाने का मोह क्यों ! उसे ही अपना सर्वस्व समझकर सर्वस्व उसके पीछे लुटा देने की सनक सवार क्यों ! सोते को जगाया जा सकता है, पर जानबूझ कर सोये हुये को जगा लेना सम्भव नहीं । अनजान में की हुई अज्ञान की भूल सुधारी जा सकती है; पर जानकर करनेवाले जानकार की भूल नहीं सुधर सकती। मोहमयी निद्रा में संसार सोता है और कर्म के चोर सर्वस्व लटते हैं, परन्तु संसार को इसकी मुद्धि ही कहाँ ! ऐसे संकट के समय में सद्गुरु काम आते हैं । जो जीवात्मा को जगाते हैं और मोहमयी निद्रा एवं तंद्रा दूर करते हैं। जब जीवात्मा सावधान होकर कुछ विशेष प्रयास आत्म-रक्षा के लिये करता है, आत्मिक शक्ति के अन्वेषण और परीक्षण को प्रस्तुत होता है तो परिणाम स्वरूप कर्मरूपी चोर, जो आकर लूट मार करनेवाले थे, नहीं आ पाते । जब जीवात्मा को कुछ सुखद सफलता समीप सी दिखाई देती है तो वह ज्ञान के दीपक को तप के तेज से प्रज्वलित करता है, और अपने घर में स्थित कर्मरूपी चोरों को भी निकाल बाहर करता है। फिर वह कुछ निश्चित और प्रसन्न-सा होकर विचारने लगता है-' लोक में मेरा कितना क्षुद्र स्थान है ! जब कि मुझे आत्मिक नैसर्गिक रूप से लोकोचर स्थान पर आसीन होना चाहिये । स्वर्ग ऊपर है और नर्क नीचे ! अच्छा करना पुण्य का कारण है और बुरा करना पाप का । मुझे स्वर्ग और नर्क, पाप और पुण्य, भला और बुरा, राग और द्वेष कुछ भी नहीं चाहिये । मुझे चाहिये निःकांक्षित अंगमयी धार्मिक क्रियायें, मुझे चाहिये आत्मिक कर्त्तव्य समझने के लिये अनासक्ति योग ।' संसार में सब कुछ मिल सकना सम्भव है । परन्तु यथार्थ ज्ञान नहीं । हितकारी मनोहर वचन अतीव दुर्लभ हैं । धर्म वह कल्पवृक्ष है जो संसार को बिना याचना किये ही सर्वस्व प्रदान करता है। धर्म-तत्व नितान्त सूक्ष्म है। उस तक पूर्ण रूप से वही पहुंच सकता है जो निन्ति और तत्वज्ञानी है । सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से मोक्ष मिलने की सम्भावना है। इनके अभाव या अपूर्णता में नहीं। तीर्थङ्कर विवेक के प्रकाश में दुःखवादजन्य गहरी अनुभूति लिये तीर्थङ्कर बननेवाला महान् व्यक्ति विवेक के प्रकाश में विचारता है ' समझदारी आने पर यौवन चला जाता है, जब तक फूलों की माला गूंथी जाती है फूल मुरझा जाते हैं, जिसके स्वागत के लिये समारोहमयी धूमधाम होती है उसके आनेके पहले ही प्रतीक्षा में आँखें पथरा जाती हैं। मधुऋतु में फूल हँसते हुये आते हैं और मकरन्द गिरा कर मुरजा कर रोते हुये जाते हैं, मनुष्य मुट्ठी बाँधे हुये आते हैं और हाथ फैलाकर चले जाते हैं, आँखोंसे आँसू आते हैं और गालगीले कर के चले जाते हैं, दिन और रात बनते हैं-मिटते हैं, सूर्य और चन्द्र उदय और अस्त होते हैं, वैसे ही पुरुष, पशु और पक्षी
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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