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________________ ४१८ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैवायम तीर्थङ्कर का जीवन तीर्थकर पूर्ण पुरुषार्थी पुरुष होता है । वह धर्मवीर होने के साथ ही कर्मवीर भी होता है । तीर्थकर का जीवन पूर्ण विकासमय होता है। वह अपने जीवन में उन कमों को, जिनके कारण संसार नाना प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करता है, जीत कर कर्मवीर बनता है और ऐसे धर्म के चक्र का प्रवर्तन कर, जो नीचे से ऊँचाई पर पहुँचाने में समर्थ है, जो भारी से हरका करने के लिये सतत सन्नद्ध है, धर्मवीर बनता है। जब तीर्थकर कर्मवीर के रूप में संसार के कार्यों को कर के, जो उसे आवश्यक होते हैं, आत्मा से सम्बन्धित कर्मों पर विजय प्राप्त करने के लिये प्रस्तुत होता है, तब भी वह मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित करता है और जब वह धर्मवीर के रूप में संसार के कल्याण की कामना से प्रेरित हो कर समवसरणों की सभाओं में अपूर्व अश्रुत आत्मविभोरक धर्मोपदेशामृत का रस प्लावित करता है, तब भी वह अपनी ओर अन्य व्यक्तियों को आकर्षित करता है। __ यद्यपि तीर्थंकर राजपुत्र होता है तो राजा बनता है, चक्रवर्ती बनता है, कामदेव भी बनता है-प्रजा और परिजन की ममता तथा मोह में भी फँसता है; तथापि संसार की मान्यता का सुख, जो एकसे अधिक दुःखों का बीज है, उसे अपनी ओर पूर्णतया आकर्षित नहीं कर पाता। सारे संसार की सुख-साधन सामग्रियों के समुदाय का सदुपयोग करते रहने पर भी वह आत्मा की ओर से, आत्म-धर्म की ओर से कभी भी पराङ्मुख नहीं होता । प्रत्युत सांसारिक जीवन में वह धार्मिक संस्कारों के अङ्कुरों को पूर्णतया जड़ जमाने का अवसर प्रदान करता है, जिसके आधार पर उसे अपना सच्चे सुख का पुष्पित-पल्लवित-फलित धर्म-विटप वृद्धिंगत करना है । लोक के लोगों की दृष्टि में तीर्थंकर का जीवन आशा से भी कहीं अधिक सुखमय होता है। पर वह ऐसे विचार के धरातल पर नहीं आता । निर्वेद का कारण सम्मुख पाते ही वह वैराग्य की ओर आकर्षित ही नहीं होता, बल्कि उस रूप में जैनेश्वरी अमित सुखदायिनी दीक्षा के लिये संसार के समक्ष आ जाता है, जिसमें वह जीवन लेता और छोड़ता है-जिस से सदैव सुख की ही उत्पत्ति होती है और साथ ही जो सुख अजर और अमर तथा अक्षय एवं अनन्त भी है । तीर्थङ्कर का दुःखवाद दुःख वाद तीर्थकर को दार्शनिक विद्वान् एवं विचारक बना देता है । वह विषयवासनाओं से विरक्त हो प्रकृति के शान्त एकान्त स्थान में विचरण करता है । पर्वतमालाओं, मनोरम उपत्यकाओं, गम्भीर गुफाओं की शरण लेता है । उग्रतम सर्वोच्चकोटि की आत्मसाधना में लवलीन होता है, वह विचारता है-'सुखद सिद्धि कैसे मिले ! सफल सिद्ध किस
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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