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________________ और जैनाचार्य विश्व के उद्धारक । ४१५ हर तरह से सहायता करना, व्यवसाय में उनको निपुण बनाना वे सदा अपना कर्तव्य समझते थे । सार्थवाह की पदवी उनके साथ लग कर सार्थक होती थी। ठीक इसी भाँति श्रीतीर्थङ्कर परमात्मा भी संसाररूप महाभयंकर जंगल में से आत्मकल्याण की भावनारूप व्यापार के अर्थी मुमुक्षु जीवों को सन्मार्ग के उपदेश-साधनों द्वारा राग-द्वेष आदि डाकुओं के त्रास से बचाकर और तदनुसार समय के पालन में आवश्यक एवं उपयोगी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की महामूल्य धन-संपत्ति देकर मोक्षरूप महानगर में सरलता से पहुंचा कर एवं आत्मिक शक्तिओं के अखूट खजाने का उनको स्वामी बनाकर सदाकालीन मुख-समृद्धि के पात्र बना देते हैं। अतः श्रीतीर्थकर भगवंत विश्व के सुयोग्य मुमुक्षु जीवों को सन्मार्गोपदेश द्वारा कमों के बंधनों से छुड़ानेवाले एवं परम साधन सुख के भोक्ता बनानेवाले महासार्थवाह के रूप में जगत के सच्चे उद्धारक माने गये हैं। इस तरह जगत् के महान् तारणहार लोकोतर महिमाशाली अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी श्रीतीर्थकर परमात्मा को सच्चे स्वरूप में पहचानने-समझने के लिये शास्त्रीय ये चार उपमाएं अत्युपयोगी हैं। इन्हें जानकर मुमुक्षु आत्मा श्रीतीर्थकर परमात्मा के आदर्श जगत् के हितकारी यथार्थ स्वरूप को समझकर अपने अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बनेयह ही शुभेच्छा है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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