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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम इसी तरह संसाररूप समुद्र में अज्ञान के कूहरे में फंस कर उस्टे रास्ते जा रहे संसारी जीवों के जीवन-जहाज़ को श्री तीर्थकर परमात्मा स्वयं नाविक बन कर सम्यग् ज्ञानरूप मुकान की विशेषता के साथ ज्ञान-क्रिया से समन्वित सदुपदेशरूप जहाज़ चलाने की क्रिया करते हुए संपूर्ण योगक्षेम के साथ निर्विघ्न रूप से सामने के मोक्षकिनारे की ओर ले जाते हैं। ५ महासार्थवाह पावंति णिव्वुइपुरं, जिणो वइद्वेण चेव मग्गेणं । अडवीइ देसियत्तं, एवं णेयं जिणिंदाणं ॥ -श्री आवश्यकनियुक्ति गा० ९०६ प्राचीनकाल में स्थलमार्ग से व्यापारादि के लिए जानेवाले पूर्व के पुण्य के योग से मिली हुई संपत्ति, शक्ति एवं साधनों से समृद्ध व्यापारी लोग साधनहीन अन्य व्यापारिओं को-जो कि मार्ग की विकटता, चौकीदारी या अन्नादि की व्यवस्था एवं विशिष्ट सहयोग न मिलने के कारण अर्थोपार्जन के लिए अकेले विदेशयात्रा करने का साहस नहीं कर सकते थे, सादर प्रेमपूर्वक उन्हें निमंत्रण देकर अपने साथ विदेश में ले जाते थे। बरिक मार्ग में आनेवाले भयंकर जंगलों में व्यवस्थित चौकीदारी, जंगली शिकारी जीवोंसे संपूर्ण रक्षण एवं खाने-पीने की संपूर्ण व्यवस्था आदि सुयोग्य उत्तरदायित्य के साथ कुशलतापूर्वक बड़े-बड़े विकट जंगलों को पार करवा कर बड़े-बड़े शहरों में ले जाते थे। जिसको जहाँ जाना होता उसको वहाँ पहुंचा देते और व्यापार करने के लिये उन्हें आवश्यक धन-सम्पत्ति भी देते थे । लौटते समय उन सब को सुरक्षितरूप से साथ लेकर सकुशल अपने-अपने घर पहुंचा देते थे। ऐसे उदारचरित व्यापारिओं को प्राचीनकाल में सार्थवाह की मानपूर्ण पदवी दीजाती थी और उनका बड़ा सम्मान किया जाता था। असहाय व्यापारी एवं दुःखी वणिक्पुत्रों की ४. महासार्थवाह चित्रपरिचयः-अति गहन संसाररूंप जंगल में व्यापार दृष्टिसे से ऊंट, बैल, घोडे, गद्धे, खच्चर आदि पर पूरा माल सामान असबाब लाद कर विदेशयात्रा करनेवाले सार्थ का दृश्य बताकर मुक्तिरूप नगर में पहुंच कर आत्मा की अद्भुत-अक्षय ज्ञानादि गुणों की संपत्ति पाने के लिए अत्युत्सुक हुए मुमुक्षु जीवों को बताया हैं। परन्तु जंगल में पूरी संरक्षणता रखनेवाले सार्थवाह शेठ के मार्गदर्शन या देखभाल विना वह विदेशगमन करनेवाला सार्थ सकुशल प्रयाण नहीं कर सकता; अतः चित्र में बाँयी ओर एक बड़े पेड़ की आड़ में से आगे बढते हुए श्री तीर्थंकरदेव परमात्मा को और उनके पीछे केवलज्ञान के अत्युज्ज्वल प्रकाश से आलोकित विपुल मार्ग को बताया है। उस मार्ग से अपने पीछे २ समस्त जगतभर के मुमुक्षु प्राणिओं को निशंकरूप से चले आने का मधुर संदेश श्री तीर्थंकरदेव परमात्मा अपनी हितकर प्रशान्त मुद्रा से सुना रहे हैं।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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