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________________ और जैनाचार्य विश्व के उद्धारक । ४१३ मा हण " शब्दों से रोकने - थामने की चेष्टा करते थे, वे ही महाश्रावक आगे चल कर नौवें तीर्थंकर के निर्वाण के बाद माहण संस्था के सर्जक बन कर कालदोष एवं भवितव्यता योग से विकृत ब्राह्मण जाति के उत्पादक हुए । इस तरह लोकोत्तर उपकारी श्री तीर्थंकर परमात्मा भव्यात्माओं को उद्देश्य कर निरंतर घोषणापूर्वक कह रहे हैं कि - " मा हण मा हण " " किसी जीव की हिंसा मत करो, हिंसा मत करो, शक्य जयणाबुद्धि और विवेकबुद्धि के समन्वय से अनर्थदंड का सर्वथा त्याग कर अर्थदंड के रूप में विवक्षता से आवश्यक रूप में की जानेवाली हिंसा के क्षेत्र में भी संकोच करते रहो ॥ 99 उपरोक्त अभय संदेश श्री तीर्थंकरदेव भगवंत संसार के निखिल प्राणिओं को अपनी अभयमुद्रा से निरंतर सुना रहे हैं । ३. महानिर्यामक " णिज्जामगरयणाणं, अमूढणाणमइकण्णधाराणं । वंदामि विषयपणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥ - श्री आवश्यकनिर्युक्ति गा. ९१४. "9 समुद्र के यात्रियों की क्षेमकुशलता की दृष्टि से जहाज़ को चलानेवाले नाविकखलासी - मलाहा एवं सुकानी की निपुण कार्यपद्धति की अत्यंत अपेक्षा रहती है; क्यों कि इसके बिना जहाज़ पानी की गहराई में छिपे हुए जलावर्त्त पानी के भँवर - (चक्करदार पानी) में फँसकर या छोटी बड़ी पहाड़ियों से टकराकर चूर-चूर हो जाता है। शायद पुण्य संयोग से जहाज सुरक्षित भी रह गया तो भी सामने किनारे जिधर यात्रीको जाना हो उधर निपुण नाविक के बिना व्यवस्थित रूप से जहाज़ सकुशल बढ़ नहीं सकता है । ३. महानिर्यामक चित्रपरिचयः - भयंकर संसाररूप समुद्र बता कर उसमें भयंकर तूफान और उछलते हुए पानी के बड़े-बड़े गोटे बता कर संसारी जीवों के अज्ञानपूर्ण व्यावहारिक जीवनरूप जहाज को अभी डूबने की स्थिति में बताया है। नीचे के भाग में एक दुमंजिली साधनसंपन्न बड़ी नाव बता कर उसके आगे के तूतक पर नाव को चलानेवाला एक महाहा बता कर तीर्थंकरदेव भगवंत को निकट में पहाड़ी चट्टान पर मार्गदर्शक के रूप में बताया है। इससे समझने को मिलता है कि - वीतरागदेव भगवंतों के वचनों के आधार पर जीवन की तमाम क्रियाओं का बंधारण बना कर विवेक और संयम के साथ हर प्रवृत्ति करनेवाले की जीवननौका जन्म - जरा - मरणादि के पानी से भरे हुए अति भयंकर संसारसमुद्र से सरलता से पार हो जाती है । अतः श्री तीर्थंकर भगवंतों का उपदेश ही मुमुक्षुओं के जीवन को पवित्र बनानेवाला है, इस चीज को यह चित्र ध्वनित करता है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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