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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - प्रथ जिन, जैनागम जिस भांति ग्वाला अपने या गांव के गाय, भैंस, गाडर, बकरे आदि पशुओं का बराबर पालन-पोषण करता है और अच्छे घासचारे एवं मीठे पानी के स्थानवाले अच्छे जंगलों में ले जाता है एवं च बाघ, शेर, चित्ता आदि शिकारी पशुओं के त्रास से उनका बचाव प्रतिक्षण करता रहता है, इसी तरह छः जीव - निकायरूप समस्त अज्ञान प्राणिओं को धर्म की आराधना के साथ एवं सुयोग्य मार्गदर्शनरूप व्यवस्थित संरक्षण के साथ आत्मिकतत्व के रमणतारूप अच्छे घास-पानी से भरपूर सुंदर मोक्षरूप जंगल की ओर ले जाते हैं और रागद्वेषरूप बाघ एवं पुराने अशुभ संस्काररूप शिकारी पशुओं के त्रास से मधुर उपदेश के बल पर यत्नपूर्वक बचाते रहते हैं - तीर्थंकर भगवान् । ४१२ ऐसे श्री तीर्थंकर परमात्मा सचमुच में अखिल विश्व के छोटे-बडे प्राणी मात्र के सच्चे संरक्षक हैं और महागोप के महत्त्वपूर्ण विरुद को वे धारण कर अपनी लोकोत्तर जीवनशक्ति का परिचय दे रहे हैं । २. महामाहण " सवे पाणा स भूया सबे जीवा सबै सत्ता ण हंतवा, ण अजावेयवा, ण परिधेतवा, ण परियावेयवा, ण उद्भवेयवा || 99 - श्री आचारांग सूत्र अध्य. ४३. उ. १, सू. १. इस अवसर्पिणी के आद्य तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवंत के पुत्र और आद्य चक्रवर्ती श्री भरतचक्रवर्त्ती के वे आदर्श महाश्रावक जो जहाँ-तहाँ होनेवाली हिंसा को " मा हण झुकाव उन के आसपास खड़े हुए चारों गति के जीवों को बचाने की भावकरुणा का द्योतक है। ग्रामीण पोषाक में रहा हुआ ग्वाला प्रभु की महागोपता सूचित करता है । एक टोपीवाली और एक पगड़ी वाली मानवाकृति प्राचीन - अर्वाचीन उभय संस्कृतिवाली मानव जाति को शरणागत बता रही है । वाम पक्ष पर नारकी और देवगति के प्रतीक बताये हैं। चारों ही गति के जीव प्रभु की भाव- दया के पात्र बने हुए हैं । चित्र की उपर की गोलाई में बांही ओर पृथ्वीकाय, तेउकाय और दांयी ओर वायुकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय बताये और चित्र के नीचे के अर्धवर्तुल में जलचर, स्थलचर, खेचर आदि विविध पंचेन्द्रियतिचों के प्रकार बताये हैं । प्रभु के सदुपदेश द्वारा विश्व के समस्त प्राणियों के होते हुये कल्याण को बतानेवाला यह महागोप का चित्र श्री तीर्थंकरदेव परमात्मा की लोकोत्तर उपकारिता प्रदर्शित करता है । २. महामाहण चित्रपरिचयः -- भूमंडल के उच्च भाग पर श्री तीर्थंकर परमात्मा को वीतरागदशा में और उनके हाथों को अभयमुद्रा से फैले हुए बता कर संसार के प्राणियों को पापपूर्णा हिंसा के विषम मार्ग से मोड़ कर संयम और जयणा के अमोघ मार्ग पर आने का मधुर संकेत है और अभयदान का सूचक है । चित्र के नीचे के अर्धवर्तुल में अज्ञान - अविवेक से कर्त्तव्यविमूढ बने हुए प्राणिओं की हिंसक प्रवृत्तिओं के नमूने बताये हैं ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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