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________________ विश्व के उद्धारक पूज्य गुरुदेव श्रावमसागरजी गणिवर-चरणोपासक मुनिश्रा अभयसागरजा संसार में अनेक प्रकार के प्राणी दिखाई देते हैं । उनमें से कितनेक अपने पेट के गड्डे को बड़ी परेशानी के साथ पूर्ण कर सकते हैं। कितनेक अपने आश्रितों का पालन-पोषण पूर्ण रूप से कर नहीं सकते और कितनेक श्रीमंत पुरुष आश्रितों का बराबर पालन कर लेने के उपरांत दीन, दुःखी, अनाथ प्राणिओं को भी आश्वासनदायक सहकार दे कर उनके मूक आशीर्वाद के पात्र बनते हैं । परन्तु अंगुलियों पर गिने जांय उतने ही जगतभर में कोई महापुरुष प्राणियों को संपूर्ण रूप से त्रिविध ताप से बचानेवाले, वास्तविक सुखशांति के देनेवाले और निष्कारण उपकार करनेवाले होते हैं । ऐसे सर्वोत्तम महापुरुष अपने उच्च आदर्शानुकूल क्रियाशील जीवन से जो वारसा संसार को देते हैं उसे समझने के लिये शास्त्रकारोंने विविध प्रकार की उपमाएं शास्त्रों में अद्भुत ढंग से समझाई हैं । उसमें की अति महत्व की कुछ उपमाओं का शास्त्रीय ढंग से विचार इस लघु लेख में किया जा रहा है । न्यायविशारद, न्यायाचार्य, पू० उपा. श्री यशोविजयजी महाराज श्री नवपदपूजा (ढा. १, गा. ४) में श्रीतीर्थंकर भगवंतों की लोकोत्तर उपकारिता समझाते हुए फरमाते हैं कि:" महागोप महामाहण कहीए, निर्यामक सत्थवाह | उपमा एहवी जेहने छाजे, ते जिन नमीए उच्छाह रे || - भविका ! सिद्धचक्र पद वंदो ॥ " श्रीतीर्थंकर परमात्माओं के अद्भुत व्यक्तित्व का यथार्थ परिचय करानेवाली ये महागोप, महामाहण, महानिर्यामक, महासार्थवाह की चार रूपक उपमा प्रिय जीवों को अत्युपयोगी होती हैं, अतः उनका क्रमशः विवेचन किया जाता है । १. महागोप जीवनिकाया गावो, जं ते पार्लेति महागोवा । मरणाइमयाहि जिणा, णिवाणवणं च पार्श्वेति ॥ आवश्यक निर्युक्ति गा. ९१६ १. महागोप चित्रपरिचयः खङ्गासन में स्थित श्रीतीर्थंकर भगवंत के दोनों हाथों का तनिक मोड - ( ५२ )
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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