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संस्कृति । विशिष्ट योगविद्या ।
४०१ आचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी महाराजने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का योग विषयक साहित्य में भी पूरा परिचय दिया है । आप अपने समय के उच्च कोटि के विद्वान थे। आपने प्राचीन समय से आती हुई योगधारा को सम्पूर्ण रूपेण जो नूतन काया प्रदान की है वह परम अनुपम है।
__ आपका निर्मित योग साहित्य इस समय चार ग्रन्थों (षोडशक प्रकरण, योगविंशतिका, योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु ) में प्राप्त है। जिनमें आचार्य भगवान ने एक ही योग ( अध्यात्म ) का भिन्न-भिन्न प्रकारेण विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। जिस प्रकार उक्त पातंजल योगदर्शन में आठ अंग योग के बतलाये हैं वैसे ही आचार्यश्रीने मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा, ये आठ अंग बतलाये हैं। उक्त प्रत्येक अंग में यम नियमादि का समावेश हो जाता है । इस विषय का विशेष ज्ञान प्राप्त करनेवालों को उक्त ग्रन्थों का अनुशीलन करना चाहिये।
हाँ, वाचक वर्ग को इस लेख में जो त्रुटि ज्ञात हो वह मेरे लिये रख दें और ग्राह्य जो हों वे पूर्वाचार्यों का प्रदत्त समझ कर निज जीवन में व्यवहृत कर आत्मविकास की साधना करने का प्रयत्न करें यही अभिलाषा है।
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४० इस लेख में इन ग्रंथों का साभार उपयोग किया गया है । श्री स्थानांग सूत्र, श्री समवायांग सूत्र, श्री उववाइसूत्र, श्री जैनागमों में अष्टांग योग ।