SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 483
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और समय श्वासोश्वास जैसी सूक्ष्मतम क्रिया का भी निरोध हो जाता है और समस्त आत्मप्रदेशों का हलन-चलनादि प्रकम्पन व्यापार भी परिसमाप्त हो जाता है, तब समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान सिद्ध होता है । इस अवस्था को प्राप्त साधक की आत्मा समस्त मानसिक, वाचिक और कायिक सूक्ष्म और स्थूल व्यापारों से अलग हो नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय इन चार अघाति कर्म को विनष्ट कर, शैलेसीकरण कर चार ह्रश्वाक्षर ( अ, इ, उ, ऋ) उच्चारण मात्र समय में निर्मल निष्क्रिय स्वरूप हो सम्पूर्ण सुखरूप मोक्षपद को प्राप्त होता है । यही मानव का चरम लक्ष्य है। यहाँ से आत्मा का संसार में पुनरागमन नहीं होता । सारांश यह है कि पृथकत्ववितर्कसविचारी ध्यान समस्त योगों में होता है । एकत्ववितर्कअविचारी किसी एक योग में और सक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती मात्र काययोग में होता है और समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाती अयोगी को ही होता है।छद्मस्थ के मन को निश्चल करना और केवली की काया को निश्चल करना ध्यान कहाता है । शुक्लध्यान के चार लक्षण, चार आलम्बन और चार अनुप्रेक्षा हैं । विवेक, व्युत्सर्ग अव्यर्थ, असम्मोह ये चार लक्षण । क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव ये चार आलम्बन । अनन्त वर्तितानुप्रेक्षा, अशुभानुप्रेक्षा, विपरिणामानुप्रेक्षा और अपायानुप्रेक्षा ये चार अनुप्रेक्षा ( भावना ) हैं। जब साधक शुक्लध्यान ध्या कर केवलज्ञान प्राप्त करता है, तब उसमें समाधियोग भी संपूर्ण रूपेण होता है याने समाधि योग का आविर्भाव ध्यानयोग में हो जाता है। आगमों में समाधि का कहीं धर्मध्यान अर्थ किया है तो कहीं ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना का अर्थ किया गया है । तात्पर्य है कि समाधि का समावेश ध्यान में ही हो जाता है । जैन दृष्टि से योग का ही दूसरा नाम ध्यान है; अत: जैन दृष्टितः ध्यान योग में ही समाधि योग का आविर्भाव हो जाता है । उपसंहार-यद्यपि यहां योग का उक्त स्वरूप जैन पद्धत्यनुसार यत्किचित् रूप में आलेखित है । इसे अवलोकन करने पर वाचकों को ज्ञात होगा की जैनागम और पातंजल योगदर्शन इस विषय को लगभग समानरूप से प्रतिपादित करते हैं। मात्र दोनों की वर्णनशैली ही भिन्न है। ३७ सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारी लक्खणा पण्णत्ता। तंजहा-विवेके | विउसग्गे । अव्वहे, अस्संमोहे । ३८ सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारी आलंवणा पण्णता। तं जहा-खंती गुत्ती मुत्ती अज्जवे महवे । ३९ सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारी अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ तं जहा-अवायणुप्पेहा, असुभाणुप्पेहा, अणंतवत्तियाणुप्पहा, विपरिणामाणुप्पहा । से तं झाणे । (श्री उववाई सूत्र)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy