________________
संस्कृति
विशिष्ट योगविद्या। (१) पृथकत्व-वितर्कसविचारी:-एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों का भिन्न-भिन्न प्रकार से विस्तृत प्रकारेण पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक इत्यादि नयों से चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्कसविचारी शुक्लध्यान है । यह ध्यान विचारपूर्वक होता है, तभी इसे सविचारी याने विचारपूर्वक होनेवाला कहा गया है। विचार का स्वरूप है-शन्दतः शब्द में अर्थतः अर्थ में और एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होना । यह ध्यान पूर्वधर को होता है । तथा माता मरुदेवी की तरह जो पूर्वधर नहीं हैं उन्हें अर्थव्यंजन और योगों में परस्पर संक्रमणरूप यह ध्यान होता है ।
धर्मध्यान में अभी तक जो बाह्य वस्तुओं का अवलम्बन था वह इस ध्यान में मात्र श्रुत का ही अवलम्बन है।
(२) एकत्व-वितर्कअविचारी:-पूर्वश्रुत का आधार लेकर उत्पादादि पर्यायों के एकत्व याने अभेद से किसी एक पदार्थ-पर्याय का स्थिरचित्त से चिन्तन करना एकत्ववितर्कअविचारी शुक्लध्यान है । इस ध्यान में एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक शब्द से दूसरे शब्द में और एक योग से दूसरे योग में संचरण नहीं होता, अपितु ध्याता किसी एक पर्याय रूप अर्थ को लेकर मन, वचन और काया के किसी एक योग पर स्थिर होकर अभेद प्रधान चिन्तन करता है, यही एकत्ववितर्क अविचारी शुक्लध्यान है । इस ध्यान के ध्याता का चित्त, इस ध्यान से चित्तगत चांचल्य भावना सर्व प्रकारेण विनष्ट होकर, एकाग्र और निरोधरूप परिणाम को प्राप्त हो निष्प्रकम्प हो जाता है । जब साधक की उक्त स्थिति हो जाती है, तब उसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और मोहनीय इन चार घनघाती कमों का क्षय हो कर परम श्रेष्ठ ज्ञान ( केवलज्ञान ) प्राप्त होता है। यह परम ज्ञान प्राप्त होने पर साधक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी वीतराग बन कर त्रिलोक (स्वर्ग-मय--पाताल) का पूज्य बन कर प्राणीमात्र का शरण बन जाता है ।
(३) सूक्ष्म क्रियाअप्रतिपाती:-जब केवली भगवान त्रयोदशम (सयोगी केवली' गुणस्थान को प्राप्त होते हैं, तब वे आयु के अन्तिम भाग में योगावरोध प्रारम्भ कर सूक्ष्म काययोग को रख कर शेष सब का निरोध करते हैं । उस समय श्वासोश्वास की सूक्ष्मतम क्रिया ही शेष रह जाती है, जिसमें पतन की किंचित्मात्र भी संभावना नहीं । इसी को सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं।
(१) समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाती:-यह शुक्लध्यान का अन्तिम चरण है, जो चतुदशम ( अयोगी केवली ) गुणस्थान में प्राप्त होता है। यह अन्तिम गुणस्थान है। जिस