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________________ १९८ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और आत्मा की जुदी जुदी अवस्थाएँ भी उसके अपने पूर्वभवों के संचित शुभाशुभ कर्मों का ही फल हैं । इस प्रकार कषाय एवं योगजनित शुभाशुभ कर्म, प्रकृति, धन्ध, स्थिति, उदयोदीरणा, सत्ता आदि कर्मजन्य विषय का परिचिन्तन कर आत्मा को एकाग्र करना विपाकविषय धर्मध्यान है। (४) संस्थानविचयः-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायादि द्रव्य और उनकी पर्यायादि, जीव-अजीव के आकार, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, लोकस्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक, भवन, विमानादि के आकार, लोकस्थिति, जीव की गत्यागति, जीवन, मरण के समस्त सिद्धान्तों का अधिचिन्तन कर आत्मा को उनसे अलग करना संस्थानविषयधर्मध्यान है । धर्मध्यान के चार लक्षण हैं:-आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, उपदेशरुचि और सूत्ररूचि । धर्मध्यान के चौर आलंबन है-वांचना, पृच्छना, परिवर्तना और धर्मकथा। धर्मध्यान की चौर अनुप्रेक्षा है-अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा । इस प्रकार चार भेद, चार लक्षण, चार आलम्बन और चार अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) से धर्णध्यान पूर्वतया परिपालित किया जा सकता है। धर्मध्यान ध्याने से क्रमशः लेश्याओं की शुद्धि, वैराग्य की संप्राप्ति और शुक्लध्यान ध्याने की योग्यता प्राप्त होती है । धर्मध्यान ध्याने से मानसिक शान्ति और स्थिरता प्राप्त हो जाने से शुक्लध्यान में प्रवेश सुगम हो जाता है। शुक्लध्यान:-पूर्वगत श्रुत के आधार पर मन की जो अत्यन्त स्थिरता और योगों का निरोध सो शुक्लँध्यान है । अथवा जो ध्यान आठ प्रकार ज्ञानावरणीय, दशनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय के कर्ममल को दूर करता है या शोक को नष्ट करता है वह शुक्लध्यान है । शुक्लध्यान के चौर भेद हैं-१ पृथकत्व-वितर्कसविचार । २ एकत्ववितर्कअविचारी । ३ सूक्ष्मक्रिया अनिवृति और ४ समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति । ३१ धम्मस्स णं ज्झाणस्स चत्तारी लक्खणा पण्णत्ता । तं जहा-आणारुई, णिसग्गरुई, उवएसइई, सुत्तरुई। ३२-धम्मस्सगं झाणस्स चत्तारी आलंवणा पणत्ता तं जहा-वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, बम्मकहा। ३३ धम्मस्स णं ज्झाणस्स चत्तारी अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ । तं जहा-अणिचाणुप्पेहा, असरणानुप्पेहा, एगत्तामुप्पेहा, संसाराणुप्पहा। ३४-समवायांगसूत्र ४ समवाय । ३५ स्थानांगसूत्र ४ स्थान । ३६ सुकज्झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णते । तं जहा पुहुत्त वियक सवियारी एगत्तवियके अवि. यारी, सुहमकिरिए अप्पडिवाई, समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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