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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और कला में भी आभ्यंतर अर्थ और बाह्यरूप, दोनों का जहां एक समान रमणीय विधान हो, वहीं श्रेष्ठ कला की अभिव्यक्ति है।
गुप्त कला इसका उदाहरण है। उसमें बाह्यरूप की पूर्ण मात्रा को अनुप्राणित करनेवाला जो अर्थसौंदर्य है, वह शब्द का अद्भुत या विलक्षण रूप प्रस्तुत करता है। शिल्पी या चित्राचार्य अलंकरण संभार में संनतांगी कलाकृतियों का निर्माण कर के ही परितृप्त नहीं हुए। उनकी कृतियां उस सविशेष अर्थ से प्राणवन्त हैं जो बुद्ध के अनुत्तर ज्ञान एवं शिव की समाधि से अथवा लोकसंरक्षण में व्याप्त परमेष्ठि विष्णु के अहर्निशि संवेदनशील स्वरूप से भावापन्न या ओजस्विनी बनी है। उन कलाकृतियों में कितनी रमणीयता, कितनी सजीवता और कितना अनन्त अक्षुण्य आकर्षण है! इसे किस प्रकार कहा जाय ! उनके सानिध्य में स्थूल सीमाभाव विगलित हो जाता है और मन दिव्य भावों के लोक में विलक्षण आनन्द, शान्ति
और प्रकाश का अनुभव करता है। इस अमृत आनन्द या रस तक जो पहुंचा सके वही चिरंतन काव्य और कला है।
___ ऊपर कही हुई तीन दृष्टियों में से चाहे किसी भी दृष्टि को व्यक्तिगत रुचिमेद के कारण हम स्वीकार करें, किन्तु सर्वोपरि सत्य वही रहता है । जो स्थूल रूप, शब्द या कलाकृति है वह उसीका एक प्रतीक है । इस विषय में जो कोई एक देव सहस्रधा महिमाओं से सर्वत्र, सर्वदा प्रकट हो रही है, उसीकी महिमा के परिचायक ये सब प्रतीक हैं। इनके अस्तित्व की
और कोई सफलता नहीं। सब का पर्यवसान उसी एक लक्ष्य में है। नाना रूप उसी एक प्रतिरूप का संकेत कर रहे हैं। किन्तु फिर भी उसकी महिमा प्रख्यात करने में ये पर्याप्त नहीं हैं। विश्व के रोम-रोम से यही महान् प्रश्न उठ रहा है
कथमः स केतुः ? कौनसा वह केतु है ! कौनसा वह केतु है ! इन समस्त प्रतीकों से प्रतीयमान, इन समस्त रूपों से आविर्भूत वह केतु, प्रतीक या प्रतिरूप कहां है ! उस समग्र की प्राप्ति क्या संभव है ! क्या ये प्रतिरूप उस प्रतिरूप के अनन्त सौंदर्य, उसकी अनन्त महिमा और उसके अनन्त आनन्द और ऐश्वर्य को पर्याप्त रूप से प्रकट कर सकते है ! यही कहना पड़ता है कि स्थूल रूप और शब्द अपर्याप्त हैं। वे संकेत मात्र हैं, जो निरन्तर उस देवात्मक ज्योति की ओर संकेत कर रहे है
देवं वहन्ति केतवः विश्व के अप्रतयं, तमोभूत, अप्रज्ञात पूर्व युग में जब अव्यक्त से व्यक्त भाव का उद्गम