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________________ संस्कृति रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । ३५७ नन्दिपद, वर्धमान, देवगृह, रत्नपात्र, माल्यदान, मीनयुगल, श्रीवत्स, कौस्तुभ आदि जो अनेक मांगलिक चिह हैं, वे भी उन प्रतीकों के रूप हैं जिन्हे मानव की कलात्मक भाषाने शिल्प में सौंदर्य की अभिव्यक्ति के लिये कल्पित किया है । ये चिह्न कला की भाषा के लिये उस वर्णमातृका के समान हैं जो अर्थ की प्रतीति के लिये आवश्यक है । अनन्त अर्थ को आत्मसात् करने के लिये वाणी ही एक मात्र साधन है, यद्यपि इस साधन की भी सीमाएं हैं। क्यों कि अमूर्त अर्थ को मूर्त शब्दों द्वारा समग्र रूप में पकड़ पाना असंभव ही है, अतएव अन्ततोगत्वा प्रत्येक शब्द अपने अर्थ का प्रतीक मात्र ही बन कर रह जाता है। कला और काव्य दोनों ही का उपजीव्य भावलोक है। भाव सृष्टि से ही आरंभ में गुण सृष्टि का जन्म होता है और फिर भाव और गुण दोनों की समुदित समृद्धिभूत सृष्टि में अवतीर्णता होती है । भाव सृष्टि का संबंध मन से, गुणसृष्टि का प्राण से और भूत सृष्टि का स्थूल भौतिक रूप से है। इन तीनों की एकसूत्रता से ही लौकिक सृष्टि संभव होती है। इन तीनों के ही नामान्तर ज्ञान, क्रिया और अर्थ हैं । ज्ञान या मन से जब क्रिया या प्राण छन्दित होता है तभी अर्थ या भूत मात्रा का जन्म होता है। इस प्रकार प्रत्येक स्थूल भौतिक पदार्थ या शिल्पकृति भावों का एक प्रतीक मात्र है। इस प्रकार का प्रत्येक प्रतीक एक-एक रूप है जो विश्व के अनन्त अमूर्त अर्थों का मूर्त परिचायक बना हुआ है । इस प्रकार शब्द और मर्थ का, मूर्त और अमूर्त का अतिरमणीय विधान हमारे चारों ओर फैला हुआ है। वस्तुतः इसीके ओतप्रोत भाव का नाम विश्व है। इसमें मूर्त के अन्दर बैठा हुआ अमूर्त, अमृत, अर्थ प्रतिक्षण झांकता हुआ दिखाई पड़ता है अथवा यों कहें कि जो अनिरुक्त अर्थ है वह निरुक्त या अभिव्यक्त मूर्ति के द्वारा प्रकट हो रहा है । किसी वस्तु को देखने की तीन दृष्टियां मानी गई हैं-शिरोमूला, पादमूला और चक्षु. मूला। सूक्ष्म से स्थूल की ओर आना शिरोमूला दृष्टि है, इसे ही ज्ञानदृष्टि या संचरदृष्टि भी कहते हैं । स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना अर्थात् स्थूल प्रतीक के द्वारा सूक्ष्म अर्थ तक पहुंचना, यह पादमूला दृष्टि है। इसे ही प्रतिसंचर क्रम या विज्ञान का दृष्टिकोण कहते हैं। तीसरी दृष्टि वह है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म अथवा ज्ञान और विज्ञान, इन दोनों का समन्वय पाया जाता है, इसे चक्षुमूला दृष्टि कहते हैं। यह मध्य पतित दृष्टि ही समन्वय की दृष्टि है, जिसे गीता में ज्ञानविज्ञानसमन्धित दृष्टि कहा है । वस्तुतः उत्तम कला के साथ इसी दृष्टिकोण का संबंध है । इसमें आन्तरिक भाव और बाह्यरूप दोनों में सौंदर्य का संतुलित विधान पाया जाता है। शब्दसौंदर्य और अर्थसौंदर्य दोनों एक-दूसरे के साथ जहां समन्वित रहते हैं उसी श्रेण स्थिति को कविने वागर्थ से संपृक्त काव्य का आदर्श कहा है। जैसे काव्य में वैसे ही
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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