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श्रीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और हैं । जो रूप उस देश में और उस काल में शिल्पी के मन में निष्पन्न हुआ वही इन रूपों में मूर्त हुआ है । बुद्ध मूर्ति देश, काल में जन्मे हुए ऐतिहासिक गौतम की प्रतिकृति नहीं है। वह तो दिव्य भावों से संपन्न रूप है । योगी के अध्यात्म गुणों से युक्त पुरुष की जो आदर्श आकृति हो सकती है वही बुद्ध की मूर्ति है। ___गुणों की समष्टि की संज्ञा देवता है। उसका रूप मर्त्य पिंड के सौंदर्य पर निर्भर नहीं। वह तो दिव्य अमृत भावों से संपन्न होनेवाला रूप है । मानव का एकत्व भाव उसका मर्त्यभाव है । वह उसकी खंड स्थिति है । समष्टि में विलीन हो जाना ही अमृत भाव है । अतएव मर्त्य मानव के स्थान पर समष्टिगत मानव रूप ही भारतीय चित्र और शिल्प में पूजित हुआ है । देवता, राजा, ऋषि, योगी, अंतःपुर के परिचारक जन-ये सब समष्टि के अथवा आदर्श लोक के प्रतिनिधि बन कर शिल्प में मूर्त होते हैं । वे सब व्यक्ति रूप न हो कर प्रतीक रूप हैं। ऐसे ही पशु, पक्षी भी व्यक्तिगत सीमाभाव से विरहित समष्टि के प्रतीक या प्रतिनिधि रूप में ही चित्रित किये जाते हैं।
___ भारतीय शिल्पी का मन नितान्त सीमित या वैयक्तिक प्रतिकृति शिल्प में उल्लसित नहीं होता । यहां प्रतिकृति का अंकन अस्वये माना गया है । यह तथ्य इसी दृष्टिकोण पर अवलम्बित है कि व्यक्ति का स्वतन्त्र रूप या सौंदर्य सीमाभाव में बद्ध होने के कारण प्रवाह से विरहित या खंडित हो जाता है । खंड भाव में मृत्यु का निवास है। जहां मृत्यु की छाया है, वहां आनन्द रूप अमृत की अनुभूति नहीं होती । आनन्द या अमृत की संज्ञा ही रस है। परिशुद्ध भारतीय परम्परा में उस अर्थ में प्रतिकृति के चित्रों के लिये स्थान नहीं है जिस अर्थ में आज हम ऐसे चित्रों को लेते हैं। किन्तु भारतीय विचारधारा शतपथों से प्रतीकवाद की उपासना करती है । प्रतीक ही की वैदिक संज्ञा ' केतु ' है। कहा गया है कि प्रत्येक प्रतीक सृष्टि के उसी महान देव का ' केतु ' या चिह्न है।
देवं वहन्ति केतवः हम अपने चारों ओर भूतसृष्टि में जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं वह सब उसी देवाधिदेव के प्रतीक रूप में उसीकी महिमा को व्यक्त कर रहा है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, आकाश, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, बिंदु, रेखा, त्रिकोण, चतुष्कोण, सब उस देव के शिल्प हैं और उसी के रूप की प्रतीति करानेवाले प्रतीक हैं। भारतीय प्रतीकों का अपरिमित विस्तार है । नाना भांति के अलंकरण, वृक्ष और वनस्पति, पुष्प और लताएं, पशु और पक्षी, सब प्रतीक रूप में ही कला की कृतियों में स्थान पाते हैं। पूर्ण-घट, चक्र, त्रिरत्न, स्वस्तिक,