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________________ - उपासकदशांङ्ग सूत्र में सांस्कृतिक जीवन की झांकी । ३४७ पुरुषार्थ के प्राप्त हो गया !" देवने कहा, "हाँ बिना ही पुरुषार्थ के प्राप्त हो गया।" तब कुंडकोलिकने कहा, "यदि ऐसा है तो फिर जिन जीवों में उत्थान, पुरुषार्थ आदि नहीं हैं ऐसे वृक्ष, पाषाण आदि देव क्यों नहीं हो जाते ! अतः तुम्हारा कथन मिथ्या है !" इस प्रकार पराजित देव आत्मग्लानि करने लगा। इस घटना से यह प्रकाशित होता है कि उस समय के श्रावकों में कितनी आत्मशक्ति और कितनी दृढ आस्था होती थी कि वे देवताओं तक को निरुत्तर कर देते थे और जिनकी प्रशंसा स्वयं भगवान् करते थे जो श्रमणों के लिए प्रेरणा-स्रोत सिद्ध होते थे । भगवान् महावीरने श्रमण निग्रंथ और निग्रंथनियों को बुला कर कहा कि-" गृहस्थावास में रहते हुए गृहस्थ भी अन्य यूथिकों को अर्थ, हेतु, प्रश्न और युक्तियों से निरुत्तर कर सकते हैं तो हे आर्यो ! द्वादशांग का अध्ययन करनेवाले श्रमण निम्रन्थों को तो उन्हें हेतु और युक्तियों से अवश्य ही निरुत्तर कर देना चाहिए।" और श्रमण निग्रंथोंने भगवान् के इन कथनों को सविनय तहत्ति' कहकर स्वीकार किया। इस प्रकार पुरुषार्थवादी विचारधारा भाग्यवादी विचारधारा पर धीरे-धीरे अपना अधिकार करती जा रही थी। धार्मिक दृढ़ता-उस समय के श्रावक अपने कर्तव्य पर अडिग रहनेवाले थे। उनकी धर्मपरायणता की चर्चा स्वर्ग में भी चला करती थी। कामदेव को डिगाने के लिए मिथ्यादृष्टि देवने क्या-क्या नहीं किया। विकराल पिशाच रूप धारण किया, मदोन्मत्त हाथी का रूप बनाया, भयंकर महाकाय विषधर का शरीर धारण किया, कामदेव को आकाश से धरती पर पटका; फिर भी वह अविचल भाव से अपने धर्म-ध्यान में स्थित रहा। आखिर देव हार गया और उससे क्षमा प्रार्थना करने लगा। उनके चरणों में गिर पड़ा । कामदेव की सहनशीलता और निर्भीकता की प्रशंसा करते हुए भगवान् ने श्रमण निग्रंथ और निम्रन्थनियों को उद्बोधन दिया है-" कि जब घर में रहनेवाले गृहस्थ भी देव, मनुष्य और तियेच सम्बन्धी उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करते हैं तो द्वादशांग-गणिपिटक के धारक श्रमण निम्रन्थों को तो ऐसे उपसर्ग सहन करने के लिये सदैव तैयार रहना चाहिये।" स्त्रियों को समान अधिकार-जैनधर्म में जो चार तीर्थों की स्थापना की गई है, उसके अनुसार-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका को बराबर अधिकार हैं । इससे इस सूत्र से हमे पता चलता है कि उस समय धर्म विषयक अधिकार दोनों-स्त्री और पुरुष को समान थे । उस समय के श्रावक जब घर आते थे तब सारी घटना अपनी स्त्री को सुनाया करते थे। दुराव और छिपाव जैसी प्रथा उस समय न थी । जब आनन्द भगवान् महावीर १ इस शब्द के अप्रचलित एवं विचित्र प्रयोग में लेखक का कोई विशेष अर्थ हो। इससे रहने दिया है। सं० दौलतसिंह
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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