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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रेय दर्शन और - धार्मिक जीवन-उस समय का जन-जीवन जटिल एवं बोझिल नहीं था। धर्म के नाम पर पारिवारिक संघर्ष न होता था । यद्यपि धार्मिक चर्चा, शास्त्रार्थ एवं वाद-विवाद, तर्कादि भी होते थे । गोशालक और सद्दालपुत्त का वादविवाद इस बात का प्रतीक है कि उस समय धार्मिक जगत में दो प्रकार की विचारधाराऐं प्रवहमान थीं । एक नियतिवादी, दूसरी पुरुषार्थवादी। श्रावक सद्दालपुत्र प्रारम्भ में गोशालक ( आजीविक मत ) का अनुयायी था। एक दिन सद्दालपुत्र अपनी अन्दर की शाला से गीले मिट्टी के बर्तन निकाल कर सुखाने के लिये धूप में रख रहा था। तब भगवान्ने पूछा कि ये बर्तन कैसे बने हैं ! सद्दालपुत्रने उत्तर दिया-"भगवन् ! पहले मिट्टी लाई गई । उस मिट्टी में राख आदि मिलाई गई और पानी से भिगो कर वह खूब रोंदी गई। तब चाक पर चढ़ा कर ये बर्तन बनाये गये हैं।" तब भगवान्ने पूछा-" ये बर्तन उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार आदि से बने हैं या बिना ही उत्थान आदि के।" सद्दालपुत्रने कहा, “ सब पदार्थ नियत ( होनहार ) से ही होते हैं।" तब भगवान्ने कहा-“यदि कोई पुरुष तुम्हारे इन बर्तनों को चुरा ले या फेंक दे, फोड़ दे अथवा तुम्हारी अग्निमित्रा भार्या के साथ मनमाने भोग भोगे तो उस पुरुष को तुम क्या दण्ड दोगे?" सद्दालपुत्रने कहा, "मैं उसे उलाहना दूंगा, डंडे से मारूंगा, यहां तक कि प्राण भी ले लूं।" भगवान्ने कहा-" तुम्हारी मान्यता के अनुसार तो न कोई पुरुष तुम्हारे बर्तन चुराता है, फोड़ता है, फेंकता है और न कोई तुम्हारी भार्या के साथ काम-भोग भोगता है; किन्तु जो कुछ होता है सब भवितव्यता से ही हो जाता है। फिर तुम उस पुरुष को दण्ड क्यों देते हो ! अतः तुम्हारी मान्यता मिथ्या है।" इससे सद्दालपुत्र को बोध होता है और वह महावीर का अनुयायी हो जाता है । इसके बाद जब गोशालक उसके पास आता है तो वह किसी प्रकार उसका आदर-सत्कार नहीं करता । तब गोशालक भगवान् महावीर का ' महामाहण', 'महागोपं ', ' महासार्थवाह', ' महाधर्मार्थी ', ' महानिर्यामक ' के रूप में गुणानुवाद करता है। इससे प्रभावित हो कर सदालपुत्र गोशालक को पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि देता है। किन्तु कोई धर्म या तप समझ कर नहीं। इसी प्रकार कुंडकोलिकने देवता को निरुत्तर कर दिया। जब देवताने उससे कहा कि गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर है; क्यों कि उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम कुछ भी नहीं। सब पदार्थ नियत हैं और महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर नहीं है, क्यों कि उसमें उक्त सभी गुण हैं और नियत कुछ भी नहीं है। इस बात को सुन कर दृढधर्मी श्रावक कुण्डकोलिकने जो प्रश्न किया वह कितना तार्किक एवं सटीक है । श्रावकने देव से पूछा-" तुम्हें जो दिव्य ऋद्धि, दिव्य कान्ति और दिव्व देवानुभाव प्राप्त हुआ है-क्या बिना ही
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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