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________________ संस्कृति । उपासकदशाह सूत्र में सांस्कृतिक जीवन की झांकी। पड़े, छोटी घड़लियां, कलश, सुराही, कुंजे आदि नाना प्रकार के बर्तन बिका करते थे। नगर सभ्यता और संस्कृति के केन्द्र माने जाते थे। सामाजिक और आर्थिक जीवन-उस समय का सामाजिक जीवन बहुत बढाचढा था । आनन्दादि श्रावकों का सामाजिक कार्यों में विशेष हाथ रहता था। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली और आकर्षक होता था कि सर्वत्र उनकी पूछ होती थी। राजा ईश्वर याक्त् सार्थवाहों के द्वारा बहुत से कार्यों में, कारणों में, मंत्रणाओं में, कुटुम्बों में, गुप्त बातों में, रहस्यों में, निश्चयों में और व्यवहारों में वे एक बार पूछे जाते थे, वार-वार पूछे जाते थे। वे अपने परिवार के मेढ़ी (मेधि) प्रमाण, आधार, आलम्बन, चक्षु अर्थात् पथ-प्रदर्शक पूछे और मेधीभूत यावत् समस्त कार्यों को बढ़ानेवाले होते थे। उनके पास धन-दौलत की कमी न थी। आनन्द, नन्दिनीपिता और शालेयिकापिता के पास १२-१२ करोड़ सोनयों की सम्पत्ति थी। चार-चार करोड़ सोनयां निधानरूप अर्थात् खजाने में था, चार-चार करोड़ सोनयों का विस्तार (द्विपद, चतुष्पद, धन-धान्य आदि की सम्पत्ति ) था और चार-चार सोनेयों से व्यापार चलता था। इसके अलावा उनके पास गायों के चार-चार गोकुल थे (एक गोकुल में दस हजार गायें होती थीं)। इसी प्रकार कामदेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक के पास १८-१८ करोड़ सोनये थे और गायों के ६ गोकुल थे। चुलनीपिता, सुरादेव, महाशतक के पास २४-२४ करोड़ सोनेयों की सम्पत्ति और आठ २ गायों के गोकुल थे। सद्दालपुत्र जो जाति का कुम्भकार था उसके पास तीन करोड़ सोनयों की सम्पत्ति थी और दस हजार गायों का एक गोकुल था। इतना धन होते हुए भी वे लोग उसे जमीन में नहीं गाड़ते थे, मक्खीचूस की भांति उसे एक जगह इकट्ठा करके तालाब के पानी की तरह उसमें सड़ान उत्पन्न करने की आदत नहीं थी । प्रत्युत वे तो धन का समुचित विभाजन कर अलग २ क्षेत्र में उसे बिखेर देते थे। उस समय का कुंभकार भी कितना धनाढ्य था और समाज में उसकी कितनी प्रतिष्ठा और पूछ थी इसका जीता जागता प्रतीक है श्रावक सद्दालपुत्त । वे ऋद्धि और सम्पत्तिशाली होते हुए भी अभिमानी नहीं थे। पशुपालन उनका धर्म था। आज के स्वतन्त्र भारत में गायों की जो दुर्दशा हो रही है उससे प्रत्येक भारतीय परिचित है । जब हम ढाई हजार वर्ष पूर्व की ओर अपनी निगाह दौड़ाते हैं और श्रावकों के पास दस-दस हजार गायोंवाले गोकुल पाते हैं तो लज्जा और ग्लानि के मारे हमारी आँखे मुंद जाती हैं। उस समय की संस्कृति कितनी धर्मप्राण, कितनी करुणामूलक, कितनी प्रेममयी रही होगी ! उसमें सरलता, सहृदयता और सात्विकता का मेल कितना गुणकारी सिद्ध हुआ होगा!
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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