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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ ९८ ' भाग्य करे सो होय' यह लोकोक्ति सोलह आना सत्य है । मनुष्य अपने भाग्यबल से असंभव को संभव, कठिन को सहज, दुर्लभ को सुलभ कौर अनुल्लंघनीय को लंघनीय बना लेता है । यह सब तब ही हो सकता है जब भाग्य प्रबल होता है। भाग्य के प्रतिकूल हो जाने पर मनुष्य में कुछ भी करने का सामर्थ नहीं रहता। भाग्य को बलवान बनाये रखने का दुनियां में धर्म के सिवाय और कोई उपाय नहीं है । धर्म एक ऐसी वस्तु है जिस से चिंतामणिरत्न के समान सभी आशाएं क्षणभर में सफल होती हैं । प्रभु-प्रतिमा के दर्शन करना, उसकी सविधि पूजा करना, तप, जप, प्रभावना, सद्भावना, परोपकार और दयालुता आदि सुकृत कर्म धर्म के अङ्ग हैं। इनका आत्मविश्वास पूर्वक समाचरण करते रहने से भाग्य की प्रबलता होती है। अत: मानवको अपनी प्रगति के लिये धर्माङ्गों को सदा अपनाते रहना चाहिये।
९९ मनोयोग, वचनयोग, काययोग, ये तीनों अपनी कुप्रवृत्ति तथा तज्जन्य पापकर्मबन्ध कराने में अग्रसर हैं। और ये ही मानवों को तुरन्त संसार में पटक कर यातना के गहरे गर्त में डालनेवाले हैं। यदि मानव इन पर अपनी सत्ता जमा कर, इन्हें अच्छी प्रवृत्ति की ओर लगावें तो उस को किसी प्रकार की यातना नहीं भुगतनी पड़ती। शास्त्रकार फरमाते हैं कि जो मनुष्य सहनशीलता, सुशीलता, सद्भावना, उदारता आदि निर्वद्य प्रवृत्तियों में सदा रमण करता रहता है उसे उक्त योगों की कुप्रवृत्ति कभी नहीं दबा सकती। अत: मानवों को अपने विकास के लिये निर्दोष शुभ प्रवृत्तियों का आश्रय लेना चाहिये, तभी अपनी प्रगति वे आसानी से कर सकेंगे।
१०० पूंजीपति व्यक्ति अकुलीन हो तो भी कुलीन, निर्बल हो तो सबल, मूर्ख हो तो जानकार और भीरु हो तो निर्भीक माना जाता है। यह उसके पास के धन का महत्व है । और इसीसे वह संसार में सुखोपभोगी, आमोद-प्रमोदी बना रहता है। परन्तु उसके लिये इससे दुर्गति द्वार बन्द नहीं होता और न उसकी श्रीमन्ताई वहां सहायक होती है । वस्तुतः धनवन्त बनने की सार्थकता तब ही होती है जब वह अपने गरीब स्वधर्मीबन्धुओं की एवं दीन, दीन, दुःखी प्राणियों की और दुःख-दर्द-पीडित जीवों की हृदय से सेवा करे तथा छात्रालय, ज्ञानालय, धर्मालय आदि की सुव्यवस्था करे । पुन्यवृद्धि और अच्छी गति की प्राप्ति इन्हीं सुकृत कार्यों से होती है।
१०१ मनुष्य मानवता रख कर ही मनुष्य है। मानवता में सभी धर्म, सिद्धान्त, सुविचार, कर्तव्य, सुक्रिया आ जाते हैं। मानवता, सत्संग, शास्त्राभ्यास एवं सुसंयोगों से ही आती और बढ़ती है। मनुष्य हो तो मानव बनो। बस धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सब प्राप्त हो सकेंगे।