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________________ २५ श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकलती है । आज भरत जैसा विनम्र, विवेकी और भ्रातृप्रेमी कौन है ? इस प्रकार के विनम्र निःस्पृही विनयी पुरुष होंगे, तभी तो वह रामराज्य कहा जायगा और जनता सुखी हो सकेगी । जहां घूसखोरी, लूटपाट, महंगवारी और आपस की फूट का साम्नाज्य रहता है, न वहां प्रजा को सुख मिलता है और न सुखभर निद्रा आ सकती है। ९५ शान्ति तथा द्रोह ये दोनों एक दूसरे के विरोधी तत्व हैं। जहां शांति हो, वहां द्रोह नहीं और जहां द्रोह हो वहां शांति का निवास नहीं होता। द्रोह का मुख्य कारण है अपनी भूलों का सुधार नहीं करना । जो पुरुष सहिष्णुतापूर्वक अपनी भूलों का सुधार कर लेता है, उसको द्रोह स्पर्श तक नहीं कर सकता । उसकी शान्ति आत्म-संरक्षण, आत्म-संशोधन और उसके विकासक मार्ग को आश्रय देती है। जिससे भाई भाई में, मित्र मित्र में, जन जन में सभी व्यक्तियों में मेल-जोल का प्रसार होता है और पारस्परिक संगठन-बल बढ़ता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को द्रोह को सर्वथा छोड देना चाहिये और अपने प्रत्येक व्यवहारकार्य में शांति से काम लेना चाहिये। लोगों को वश करने का यही एक वशीकरणमन्त्र है। ९६ जैसे वटवृक्ष का बीज छोटा होते हुए भी उससे बड़ा आकार पानेवाला अंकुर निकलता है, उसी तरह जिसका हृदय विशुद्ध है उस का थोड़ा किया हुआ पुन्यकर्म भी भारी रूप को पकड़ लेता है । दान, शील, तप, भावरूप धर्मचतुष्ट य में भावधर्म सबसे अधिक महत्वशाली है। संसार में धार्मिक और कार्मिक सभी क्रियाएँ सद्भाव से ही सफल होती है। अतः भावधर्म को स्वर्गापवर्गके महल पर चढ़ने की निसरनी और भवसागर से पार होने की नौका के समान माना गया है । इसलिये कोई भी धर्मानुष्ठान किया जाय, उसमें भावविशुद्धि को स्थान देना चाहिये, तभी उसका वास्तविक फल मिल सकता है । ९७ साधु में साधुता तथा शान्ति और श्रावक में श्रावकत्व और दृढधर्म परायणता होना आवश्यकीय हैं। इनके बिना उनका आत्मविकास कभी नहीं हो सकता। जो साधु अपनी संयमक्रिया में शिथिल रहता है, थोड़ी-थोड़ी वात में आग-बबूला हो जाता है और सारा दिन व्यर्थबातों में व्यतीत करता है, इसी तरह जो भावक अपने धर्म पर विश्वास नहीं रखता, कर्तव्य का पालन नहीं करता और आशा से ढोंगियों की ताक में रहता है; उस साधु एवं श्रावक को उन्हीं पशुओं के समान समझना चाहिये जो मनुष्यता से हीन हैं। कहने का मतलब कि साधु एवं श्रावक को आत्मविश्वास रखकर अपने-अपने कर्तव्यपालन में सदा दृढ़ रहना चाहिये तभी उनका प्रभाव दूसरे व्यक्तियों पर पड़ेगा और वे अन्य भी उनके प्रभाव से प्रभावित हो कर अपने जीवन का विकास साध सकेंगे।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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