________________
श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
मैट्रिक, एम. ए., बी. ए., एल्. एल्. बी. या इनसे भी अधिक आई. सी. ऐस. आदि डीप्रियों को पास कराने में लोग हजारों रूपयों की वारी कर डालते हैं, किन्तु गरीबों की शिक्षा या आद के लिये कुछ नहीं देते और न धार्मिक अध्ययन कराने में ही अपने हाथ को लम्बा करते हैं। याद रक्खो इससे कोई कल्याण नहीं होगा ! आत्म-कल्याण तो गरीबों को शाता पहुंचाने पर ही होगा ।
९१ मरुदेवी माताने अपने पूर्वभव की पुन्याई से इस भव के दरमियान ही अपने सामने ६५ हजार पीढ़ियां निराबाध रूप से देखीं । उन में कभी किसी का सिर तक दुःखना भी नहीं सुना और न कभी किसी को मरा हुआ सुना; इसीका नाम संसार में महासुख है । जिसके कुटुम्ब में कभी सुखी और कभी दुःखी, इस प्रकार तुमुल जमा रहता है, वह सुखी नहीं महादुःखी है । प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह मरुदेवी माता के समान सांसारिक सुख संपादन करने का यथाशक्य प्रयत्न करें ।
1
९२ जिस प्रकार आधा भरा हुआ घड़ा झलकता है, भरा हुआ नहीं; कांसी की थाली रणकार शब्द करती है, स्वर्ण की नहीं और गदहा भुंकता है, घोड़ा नहीं; इसी प्रकार दुष्ट-स्वभावी दुर्जन लोग थोड़ा भी गुण पाकर एंठने लगते हैं और वे अपनी स्वल्प बुद्धि के कारण सारी जनता को मूर्ख समझने लगते हैं । सज्जन पुरुष होते हैं वे सद्गुण पूर्ण होकर के भी अंशमात्र ऐंठते नहीं और न अपने गुण को ही अपने मुख से जाहिर करते हैं। जैसे सुगंधी वस्तु की सुवास छिपी नहीं रहती, वैसे ही उनके गुण अपने आप चमक उठते हैं । इसलिये दुर्जनभाव को छोड़ कर सज्जनता के गुण अपनाने की कोशीष करना चाहिये, तभी आत्म-कल्याण होगा ।
९३ यह निश्चयतः याद रक्खो कि जीवन, स्नेही, वैभव और शरीर-शक्ति आदि जो कुछ दृश्यमान सामने है, वह समुद्रीय तरंगों के समान क्षणभंगुर है । यह न कभी किसी के साथ गया और न किसी के साथ जाता है । क्योंकि यह सब स्थायी नहीं है, यह अनुभव सिद्ध बात है। जीव संसार में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है । वे शुभाशुभ कर्मोदय से कभी पिता, कभी पुत्र, कभी माता, कभी पुत्री, कभी पत्नी और कभी बहिन बन जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में एक धर्म को ही अपना लेने से आत्मा का उद्धार होता है और किसी से नहीं ।
२४
९४ महाराजा दशरथजी भरत को राज्य प्रहण करने को आज्ञा देते हैं। भरत इन्कार करता हुआ रामचन्द्रजी से प्रार्थना करता है कि राज्य लेने के योग्य आप हैं, मैं तो आपका सेवक रहना चाहता हूँ । रामचन्द्रजी जब यह बात मंजूर नहीं करते, तब भरत