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________________ भी राजेन्द्रसरि-वचनामृत । मतलब कि समाज या राष्ट्र में ऐसे व्यक्ति खड़े होंगे, तभी उसका संचालन व्यवस्थित रूप से हो सकेगा। ८७ भीमा कुडळिया घृत का व्यापारी था, इससे वह धनोपार्जन करके अपने कुटुंब का प्रतिपालन करता था। एक दिन वह प्राभान्तर से अपने घर की ओर जा रहा था । मार्ग में कुमारपाल राजा का मंत्रीमंडल किसी जिनालय का उद्धार कराने की पानी की झंझट कर रहा था । भीमा कुइलिया भी वहां गया और उसने अपना सर्वस्व पानड़ी में भर दिया और सबसे ऊपर अपना नाम रखाया । आज ऐसे उदार सद्गृहस्थ कहां हैं ? आजके मक्खीचूस गृहस्थ तो ऐसे अवसर को टालने के लिये इधर उधर अपना मुंह छिपाते फिरते हैं। जब तक समाज में भीमा जैसे उदार गृहस्थ न होंगे, तब तक समाज ऊंचा नही उठ सकता। ८८ अच्छा और बुरा होना सब कर्म की लीला है। उसमें दूसरा कोई निमित्तभूत नहीं है। यह सिद्धान्त अटल और अमर है । अपने पिता के व्यर्थ के मद को न सह कर मयणासुंदरीने हंसते मुख कोढी श्रीपाल को वर लिया। वही श्रीपाल श्रद्धापूर्वक नवपदआराधना के प्रभाव से देवकुमार जैसा स्वरूपवान् बन गया । आज ऐसी दृढ़ श्रद्धाल श्रावक, श्राविकाएँ कहां हैं ?। आज तो श्रावक, श्राविकाएँ जादू, टोना, अंधविश्वास, भ्रमणा, कजियाखोरी और ढोंगी देव, देवियों के पीछे अपने को बरबाद कर रहे हैं। समाज में जब तक धर्मश्रद्धालु श्रावक, श्राविकाएँ न होंगी तब तक समाज अस्तव्यस्त दशा में ही रहेगा। ८९ भोगी-भ्रमर शालीभद्र जी के दर्शनार्थ राजा श्रेणिक उनके घर आया । भद्रा शेठानीने उसका शाही स्वागत किया। शालीभद्र को कहा कि अपना स्वामी राजा-श्रेणिक आज अपने घर आया है। शालीभद्रने सोचा क्या अभी भी मेरे ऊपर स्वामी है ?, अरे! मेरी पुन्याई कम है। इसलिये ऐसा मार्ग पकड़ा जाय जिससे अहमिन्द्र पद मिले । बस, शालीभद्रने अपना देवीवैभव तथा अप्सरा जैसी सुंदर बत्तीस स्त्रियों का परित्याग करके श्रीमहावीरप्रमु के समीप भागवती दीक्षा लेली । उसका पालन कर उसने अहमिन्द्र पर प्राप्त कर लिया । आज ऐसे ज्ञानगर्भित वैराग्यशाली नरपुंगव कहां हैं । इस प्रकार की आत्मा या उनके सदृश आत्माओं का महाभाग्य से ही दर्शन हो सकता है। ९० खाते, पीते, हरते-फिरते, शयनादि करते आदि सामारिक कार्यों में लोग सदा व्यस्त रहते हैं। परन्तु सामायिक, पूजा आदि धर्मकार्य करने में वे कई तरह के बहाने निकालते हैं । इसी प्रकार विश्य, कषाय आदि में लीन शेठ, शाहूकार, प्रोफेसर, अमलदार आदि सत्ताधारियों को लोग बड़े प्रेम से झुक झुक कर प्रणाम करते हैं; लेकिन संसारत्यागी महापुरुषों को हाथ जोड़ने में भी उनको शरम आती है और अपनी संतति को
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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