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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-ग्रंथ ८३ देवलोक में देवों को असंख्य वर्षों का आयुष्य और फिर निराबाध महान् सुखभोग प्राप्त हैं। आखिर उनका भी अन्त अवश्यंभावी है। ऐसी परिस्थिति में मनुष्यादि प्राणियों का आयुष्य और सुख किसी भी गिनती में नहीं हैं। इसलिये अशाश्वत एवं क्षणभंगुर सुख में लिप्त न रह कर वैसे सुख को प्राप्त करने का प्रयत्न करो जो कभी नाशवान न हो । अतः सुदेव, सुगुरु और सुधर्म इस रत्नत्रय की विशुद्ध भाव एवं आत्मविश्वास से सदा सेवा करते रहो । इसी सेवा से अक्षय्य सुख मिलेगा। ८४ कर्मसत्ता के आगे किसी की मना नहीं चल सकती। कर्मोंने अपनी सत्ता से अनन्तबली श्री ऋषभदेव जी को बारह महिने तक निराहार रक्खा । इनके ही प्रभाव से श्री महावीर प्रभु को साडे बारह वर्ष तक अमा उपापों का मानता करना पड़ा। सगर चक्रवर्ती को ६० हजार पुगों के एकदम मरण का दुःख भुगतना पड़ा। सनत्कुमार चक्रवर्ती को घडीभर में सोलह रोग होने का कष्ट देखना पड़ा । रामचन्द्रजी को चौदह वर्ष तक जंगल जंगल में भटकना पड़ा और पांडवों को बारह वर्ष तक इधर-उधर घूमना पडा; इस प्रकार कर्मसत्ता सर्वोपरी है और इनके आगे सभी सत्ताएँ निर्बल हैं । कर्मसत्ता को जिसने जीत लिया वही पुरुष सच्चा विजयी है, इसलिये इसको जीतने का सच्चा मार्ग पकडना सीखो। ८५ हाट, हवेली, जवाहरात, लाडी, वाडी, गाडी, सेठाई और सत्ता सब यहीं पड़े रहेंगे । दुःख के समय इनमें से कोई भी भागीदार नहीं होगा और मरे बाद इनके ऊपर दूसरों का आधिपत्य हो जायगा । धर्म, दयालुना, परोपकार आदि जो सुकृत कार्य है और तज्जन्य पुन्य है वही साधक के साथ जायगा और वही उसको भवान्तर में सहाय देगा और उसको सुखकारक स्थान प्राप्त करा सकेगा। इसलिये अच्छे कार्यों को कभी मत छोड़ो, अन्यथा दुःखी होना पड़ेगा। जब अपनी बात सबको मनाने की और स्नेही, सम्बन्धी, मित्रों की और क्षणभंगुर शरीरपोषण की रात-दिन चिन्ता करते हो तो फिर भवान्तर में सुखी होने की चिन्ता क्यों नहीं करते ?-परभव में तो सुकृत कार्य ही काम देगा; हाट, हवेली आदि नहीं। ८६ धोलका-नरेश वीरधवलने जब वस्तुपाल तेजपाल को मंत्रीपद लेने को कहा तव दोनों ने कहा कि पहली सेवा वीतराग धर्म की, दूसरी सेवा धर्मगुरुओं की और उनके बाद तीसरी सेवा आप की है । यदि यह वात आप को पूर्णतया मंजूर हो तो हमें मंत्रीपद लेने में किसी तरह की आपत्ति नहीं है, वरना बाधा हो सकती है; क्यों कि मंत्रीपद की अपेक्षा धर्म की सेवा महतम और अधिक है। इस प्रकार के धर्मदृढ व्यक्ति आज कहां है ?
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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