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________________ - श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । करना १२, स्वधर्मीभाइयों की सेवा करना १३, व्यवहारशुद्धि से द्रव्योपार्जन करना १४, भारी जुलुस के साथ रथयात्रा निकालना १५, प्राचीन अर्वाचीन जैनतीथों की यात्रा करना १६, सहनशील होना १७, प्रत्येक कार्य में विवेक रखना १८, आत्मा को संवर में रखना १९, सभ्यता से बोलना २०, जीवों पर सदा दया रखना २१, धार्मिक जनों की संगति करना २२, इन्द्रियदमन करना २३-चारित्र लेने की भावना रखना २४-इस प्रकार ये दैनिक और वार्षिक चौवीस कृत्य हैं। इनको भलीभांति आचरण करने-करानेवाला पुरुष सचा जैन श्रावक कहलाता है और वह मोक्ष-मन्दिर को बहुत जल्दी प्राप्त कर सकता है। ८० पृथ्वी, अप, तेजस, वायु इन चारों की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की १० लाख. साधारण-वनस्पति की चौदह लाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय इन तीनों की दो-दो लाख, देवता, नारकी तथा तियच-पंचेन्द्रिय इन तीनों की चार-चार लाख और मनुष्य की चौदह लाख, इस प्रकार इन जीवों की चौराशी लाख योनियाँउत्पत्ति स्थान है। जो प्राणी धर्म से हीन हो दुर्भावनाबाले है वे इन योनियों में दीर्घकाल पर्यत यातना के साथ परिभ्रमण करते रहते हैं। जो लोग धर्मनिष्ठ तथा सद्भावना रखने. वाले हैं वे इन योनियों से छुटकारा पाकर सुखी बन जाते हैं। ८१ काला-बजार, कूड़-कपट, लटपाट और लांवरूश्वत के द्वारा चाहे जितनी दौलत संग्रह कर ली जाय और उससे चाहे जितना ऐशआराम किया जाय, पर वह तभी तक है जब तक पूर्व संचित पुन्य की प्रबलता है। पुण्य के नाश होने बाद न आमोद-प्रमोद है और न दौलत । यमराज का आमंत्रण आने बाद उससे न दौलत बचा सकेगी और न आमोद-प्रमोद, न सगे सम्बन्धी और न स्वजन मित्रादि । यम के पकड़ ले जाने बाद सब यहाँ ही रह जायेंगे। सिर्फ दौलतजन्य पाप ही साथ चलेगा और परभव में वही कष्ट के गहरे गर्त में पटक देगा। यह निस्संदेह समझ कर प्राप्त दौलत से सुकृत कार्य कर लो वह तुम को आगे भी सहायक हो सकेगा। ८२ मनुष्य जैसा हराम-सेवन और संग्रहखोरी में तल्लीन हो जाता है, वैसा वह यदि प्रभु-भजन या उसकी आज्ञा पालन में रहा करे तो उसका बेड़ा पार होते देर नहीं लगती। जिम तरह गर्भावस्था में, व्याधि अवस्था में, रुचियोग्य कथाश्रवणावस्था में और स्मशानयात्रा में मनुष्य जैसी मति रखता है, वैसी मति यदि सदा काल धार्मिक कार्यों में रक्खा करे तो उसे यमराज का कुछ भी भय नहीं रह सकता । अतः अपनी मति को सदाकाल वैराग्य रस में ओतप्रोत रक्खो, जिमसे जन्म -मरण सम्बन्धी दुःख मिटता जाय और आस्मा सुखमय बनती जाय ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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