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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - प्रथ द्वारा उतारा जा सकता है; परन्तु मिध्यात्वप्रसित व्यक्ति की वासना कभी अलग नहीं की जा सकती। अगर अतिशय ज्ञानी भी उसे शान्तिपूर्वक समझावे तो भी वह अपनी मिथ्यावासनाको नहीं छोड़ सकता, बल्कि शिक्षक को ही दोषी ठहराने का शक्तिभर प्रयत्न करता है । इस लिये नीतिकारों तथा धर्मशास्त्रोंने ऐसे व्यक्तियों को उपदेश देना मना किया है। वस्तुतः ऐसे मिथ्यावियों की संगति करनी भी अच्छी नहीं है। 1 ७७ पशु और पक्षी ये दोनों उपकारक हैं। लोलुपता के निमित्त इनका हनन करना महान् अपराध है और कृतघ्नता है । पशुओं के अङ्गावयव सब तरह उपयोगी हैं और पक्षियों के अवयव की भी कई प्रकार की चीजें बनती हैं जो लोगों के वापरने में आती हैं । अतः निरपराध पशु पक्षियों को मार डालना महापाप है । धर्मशास्त्र कहते हैं कि वे पशु, पक्षी मर कर मनुष्य होंगे और मनुष्य मर कर पशु, पक्षी के रूप में जन्म लेंगे । तब वे पशु, पक्षी उससे उसी पुकार का बदला लेंगे, जिस प्रकार कि मनुष्योंने उनके साथ किया था । इसलिये प्राणीमात्र को ऐसे अपराधों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये, नहीं तो बदला चुकाना पड़ेगा । ७८ लालच, लोभ के लिये हिंसादि करना १, बिना मतलब हिंसादि करना २, बदला लेने की भावना से किसी को मार देना ३, किसी को मारते हुए बीव में ही दूसरे को मार डालना ४, मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र समझने का मन में संकल्प - विकल्प करना ५, प्रत्येक व्यवहार में असत्य को ही अपनाना ६, तस्करवृत्ति से आजीविका चलाना ७, अपना बुरा चाहने की किसी के ऊपर शंका रखना ८, अभिमानवश किसीको नीचा दिखाने का प्रयत्न करना ९, थोड़े अपराधों में भी किसी को भारी दंड या सजा करना - कराना १०, कपट प्रपंचों से किसीको ठग लेना ११, लोभ के वश नीचे से नीच धन्धा रोजगार, या विषयपोषणार्थ किसी की हत्या करना - कराना १२, और रास्ता को देखे बिना अयतना से गमनागमन करना १३, इस प्रकार ये तेरह पापबन्ध के क्रियास्थान हैं । जो मनुष्य इनका परित्याग करके अपनी आत्मा को संयम में रखता है वह पापकर्म से छुटकारा पाजाता है । ७९ जिनाज्ञा का पालन करना १, मिथ्याभाव का त्याग करना २, सम्यक्तव सह श्राद्ध का परिपालन करना ३, पर्वदिवसों में पौषध करना ४, दानादि चार प्रकार के धर्म को धारण करना ५, स्वाध्याय - ध्यान में बरतना ६, नमस्कार मंत्र का जाप करना, परोपकार के लिये तत्पर रहना ८, हरएक कार्य में यतना रखना ९, सविधि एकाप्रचित प्रभु-प्रतिमा की पूजा करना १०, जिनेश्वरों का स्मरण करना ११, धर्माचार्य की प्रशंसा ܕܚ
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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