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________________ भी राजेन्द्रसरि-वचनामृत । जोरियों की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते। जब तक हम स्वयं अपनी कमजोर आदतों पर शासन न कर ले, तब तक हम दूसरों को कुछ नहीं कह सकते । अतः सर्वप्रथम प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निर्बलताओं को सुधार कर, फिर दूसरों को सुधारने को इच्छा रखना चाहिये। ७३ धर्म और अधर्म, पुन्य और पार, ज्ञान और अज्ञान, तत्त और अतत्व तथा सन्मार्ग और असन्मार्ग-इनका वास्तविक स्वरूप समझा कर प्राणियों को जो मोक्षमार्ग के लिये प्रवृत्त करता है और दुर्गति में गिरते प्राणियों को बचाता है उसी पुरुष को तारणतरण गुरु समझना चाहिये; क्यों कि उसका स्थान बहुत ऊँचा है। माता, पिता, भाई, बहन, बी, पुत्र आदि कुटुंब परिवार तो इसी लोक का साथी है। परन्तु गुरूपदिष्ट मार्ग परभव में भी साथ रहता है। वह कभी भी साथ नहीं छोड़ता। अतः ऐसे गुरु का संयोग पा कर उनकी सेवा-भक्ति से कभी वंचित नहीं रहना चाहिये। ७४ परिग्रह-संचय शांति का दुश्मन है, अधीरता का मित्र है, अज्ञान का विश्राम. स्थल है, बुरे विचारों का क्रीडोद्यान है, घबराहट का खजाना है, प्रमत्तता का मंत्री है और लड़ाई-दंगों का निकेतन है, अनेक पाप कर्मों का कोष है और विपत्तियों का विशाल स्थान है । अतः इसकी संग्रहखोरी छोड़ कर जो संतोष धारण कर लेता है, वह संसार में सदा के लिये सुखी रहता है और पापकर्मजन्य दुर्गति से अपनी आत्मा को बचा लेता है। ७५ घृत-सट्टा, आँक, फरक, घुड़दौड, तेजी-मन्दी आदि का धंधा, शतरंज, गंजीफा, तास आदि का खेलना १, मांसादन-मछली, पशु, पक्षी आदि का मांस भक्षण करना या बेचना २, सुरापान-दारु, ताड़ीपान, ब्रांडी, तमाखु खाना, बीड़ी, सीगरेट, चड़स, गांजा, भांग आदि नशाबाजी में रमना ३, वेश्या-गणिका के साथ संभोग करना ४, शिकार खेलना ५, चोरी-ताला तोड़ना, दूसरी चावी लगा कर ताला खोलना, खात पाड़ना, या पडाना, जेबों का कतरना, पर-थापण खोल कर वस्तु निकालना, चोर का पोषण करना, तथा चोर को छिपाना ६; परदार सेवा-- दूसरों की स्वी, विधवा, कुमारिका, पासवान तथा गुदा आदि के साथ मैथुन सेवन करना ७; ये सात प्रकार के कुत्र्यसन हैं जो राजयातना और लोकनिन्दा के कारण हैं। इनको दुर्गतिदायक समझकर सर्वथा छोड़ देना चाहिये, वरना महादुःखी होना पड़ेगा और मानवता का सर्वनाश हो जायगा। ७६ जिनेन्द्र--उपदिष्ट धर्ममार्ग में विपरीत श्रद्धा रखने को मिथ्यात्व कहा गया है। मिथ्यात्वी काले नाग से भी अधिक भयंकर हैं। काले नाग का जहर तो मंत्र या भौषधि
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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