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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ चारविचार से ही ऊंच नीच मानते हैं, पर जाति से नहीं। हरिकेशी, मेतार्य और पारासर ऋषि नीच कुलोत्पन्न हो करके भी अच्छे कार्य से दुनियां में पूज्य और समादरणीय बने हैं। इस लिये जो मनुष्य उत्तम आचार-विचारों को अपना ध्येय बना लेता है वह उत्तम कहता है और उनको अपना ध्येय न बनाने से ही अधम-पतित कहा जाता है । ६९ वर्षा का जल सर्वत्र समान रूप से बरसता है, परन्तु उसका जल इक्षुक्षेत्र में मधुर, समुद्र में खारा, नीमवृश्न में कड़वा और गटर में गन्दा बन जाता है। इसी प्रकार शास्त्र - उपदेश परिणामसे सुन्दर हैं । लेकिन यथापात्र उसका परिणमन होता है और अच्छे पात्र में उत्तमता और अयोग्य पात्र में अधमता धारण कर लेता है। जो व्यक्ति लघुकर्मी, धर्मनिष्ठ तथा सद्भावना-संपन्न हैं, उनके हृदय में शास्त्रोपदेश अमृत के समान परिणित होकर उनका उद्धार करता है और जो भारीकर्मी, मिथ्यामसित और दुष्टस्वभावी हैं, उनके हृदय में वह उपदेश विष के समान परिणित हो जाता है और उनका उद्धार कभी नहीं कर सकता । यह सब प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों की लीला समझना चाहिये । ७० वास्तविक लज्जागुण को अपनाओ १, प्रत्येक व्यवहार में सत्य बोलना न छोड़ो २, कोई भी अपराध होने पर उसकी माफी शीघ्र मांग लो ३, शास्त्र या लोकविरुद्ध आचरण न करो ४, भले आदमियों की सभा में बैठना सीखो ५, गुंडाओं की संगत से बचकर रहने का प्रयत्न करो ६, देव, गुरु की सेवा से वंचित न रहो ७, शास्त्र-वांचन या श्रवण सदा करते रहो ८, परस्त्रियों को ताकना छोड़ दो ९ । इन शिक्षाओं को अपना लेने से आत्मा दोषविमुक्त होता है । अतः इन शिक्षाओं को हृदय में अंकित करके इनका यथावत् परिपालन करते रहना चाहिये, तभी आत्मा उभय लोक में सुखविलासी बनेगा । ७१ दुनियां में ऐसा कोई गुणी पुरुष शेष नहीं, जिस पर खल पुरुषों ने दोषारोपण न किया हो । खल पुरुष लज्जालु पुरुषों को मतिहीन, त्यागी पुरुषों को दम्भी-कपटी, पवित्रात्माओं को धूर्त, शूरवीर पुरुषों को निर्दयी - दयाहीन, मौन रहनेवाले पुरुषों को बुद्धि - विकल, मधुरभाषी पुरुषों को गरीब, तेजस्वी पुरुषों को स्थिरचित्तवाले पुरुषों को बलहीन- अशक्त कहते हैं। इस प्रकार के से सदा दूर रहनेवाला व्यक्ति ही संसार में सुखी रह सकता है और अपने सद्गुणों की सुरक्षा कर सकता है। घमंडी - अभिमानी और खल पुरुषों के परिचय ७२ कुछ लोग अपनी आदत के वश दूसरों के अवगुणों और कमजोरियों की टीकाटिप्पण करते रहते हैं और विस्तृत रूप देते रहते हैं; किन्तु अपने अवगुणों और कम
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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