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भारत की अहिंसा संस्कृति
जयभगवान जैन अहिंसा की अनादि परम्परा
प्राचीन काल से लेकर आजतक भारतीय जनता का यदि कोई एक धर्म रहा है जिसने इसके आचार और विचार में तरह २ के मेद-प्रमेदों के होते हुए भी भारत की सभ्यता को एक सूत्र में बांध कर रखा है तो वह अहिंसा धर्म है। यह बात उन सब ही पौराणिक आख्यानों तथा ऐतिहासिक वृत्तान्तों से सिद्ध है जो अनुश्रुतियों व साहित्य द्वारा हम तक पहुंचे हैं।
बृहदारण्यक उपनिषत् ५.२. ३. में आदि प्रजापति की धर्मदेशना की एक कथा दी हुई है। इसमें बतलाया गया है कि देव, असुर और मनुष्यजन तीनों प्रजायें इकट्ठी हो कर धर्म सुनने के लिये प्रजापति के पास गईं। उन तीनों को प्रजापतिने जिस धर्म का उपदेश दिया वह तीन अक्षरों में समाया हुआ है-द. द. द । ये तीन अक्षर दया, दान और दमन शब्दों का संकेत हैं । इस तरह इन तीन अक्षरों द्वारा प्रजापतिने आर्य, असुर और मनुष्यजन को धर्म का सार बताते हुए सूचित किया था कि लोकशान्ति और सुखप्राप्ति के लिये सभी का सनातन और पुरातन धर्म दया, दान और दमन( संयम ) है।
छान्दोग्य उपनिषत् में इसी ब्रह्मविद्या का सार बताते हुए जिसका उपदेश ब्रह्माने प्रजापति को, प्रजापतिने मनु को और मनुने समस्त प्रजा को दिया, कहा गया है-जिज्ञासु को चाहिये कि जब वह आचार्यकुल से वेद पढ़ कर यथाविधि गुरु की सेवा करके परिवार में लौटे तो वह पवित्र स्थान में बैठ कर स्वाध्याय करे । अन्य लोगों को धर्म का उपदेश देते हुए उन्हें धार्मिक बनावे, अपनी सब इन्द्रियों को वश में रखे, सब जीवों के साथ अहिंसा का वर्ताव करे । जो जीवनपर्यन्त इस प्रकार वर्तता है वह निश्चयपूर्वक मरने के बाद ब्रह्मधाम को प्राप्त होता है । जहां से लौट कर वह फिर कभी संसार में नहीं आता ।
जितनी भी पापरहित अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि क्रियाएं हैं उन्हीं का सेवन मनुष्य को करना चाहिये । उनके अतिरिक्त अन्य क्रियाओं का सेवन न करना चाहिये।
१. छान्दोग्य उपनिषत् ८. १५. २. यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि मो इतराणि ॥ तैत्तिरीयउपनिषत् १. ११. २.
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