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संस्कृति मरण कैसा हो?
२९७ ६ महीने विकृष्ट तप किया जाता है। इसमें आयंबिल भी परिमित किये जाते हैं। बारवें वर्ष में उपवास आदि के पारणक में कोटि सहित आयंबिल आदि किये जाते हैं। बीच २ में मास और पक्ष के अनशन भी करते हैं । अ. ३६ । २५२-५६ ।
___ व्यवहार सूत्र के दशम उद्देश के भाष्य में भी इस का विस्तार से वर्णन मिलता है । वहां प्रथम के चार वर्षों में विचित्र तप का इच्छानुसार-कामगुण पारणा और दूसरे चार वर्षों में विगइ, त्यागपूर्वक पारणा का उल्लेख है भा. ४१२ से ४२१ । मध्यम और जघन्य संलेखना भी ऐसे मास और पक्ष के विभाग से की जाती हैं। इस प्रकार संलेखना के अनन्तर गुरु या गीतार्थ परीक्षित ही सामान्य रूप से इस मरण को स्वीकार करते हैं ।
संलेखना द्वारा केवल शरीर को ही क्षीण नहीं किया जाता, बल्कि अन्तर के विकारों को भी क्षीण किया जाता है । जब तक आन्तरिक विकार क्षीण नहीं होते साधक उत्तम मरण को प्राप्त नहीं कर सकता । इसके लिये पहले परीक्षा की जाती थी। मनोनुकूल उत्तम भोजन को पाकर भी जब मरणार्थी उसको ग्रहण नहीं करता तब तक उसकी अगृध्नुता समझली जाती थी। इस पर एक छोटा उदाहरण दिया गया है
किसी समय एक आचार्य के पास भक्त परिक्षार्थी शिष्य आया और उसने कहा, "मैं भक्त प्रत्याख्यान करना चाहता हूं।" तब आचार्य ने पूछा-" तुमने संलेखना की है या नहीं !" शिष्य को आचार्य की बात से विचार हुआ। उसने सोचा मेरा शरीर हड्डी का पंजर सा हो चुका है, लोहू-मांस का कहीं नाम भी नहीं, फिर भी गुरुजी पूछते हैं कि संलेखना की या नहीं ! रोष में आकर उसने अपनी अंगुली तोड़ डाली और बोला-" महाराज ! देखो रक्त की एक बूंद भी नहीं है, क्या अब भी संलेखना बाकी है !" गुरुजीने कहा-" वत्स ! यह तो द्रव्य संलेखना का रूप है जो तेरे शरीर से प्रत्यक्ष दिखता है, किन्तु अभी भाव संलेखना करनी है, कषाय के विकारों को सुखाना है। इसीलिये मैने पूछा था कि संलेखना की या नहीं। जाओ, अभी भाव संलेखना करो। फिर भक्त पञ्चक्खाण संथारा प्राप्त होगा । व्य. भा. ४५० । इस प्रकार द्रव्य-भाव-संलेखनापूर्वक किया गया मरण ही पंडितमरण है। मरणान्तिक कष्ट, आघात-प्रत्याघात वा आतंक से निकट भविष्य में ही देह छूटने वाला हो वैसी स्थिति में द्रव्य संलेखना की आवश्यकता नहीं होती । उस समय आलोचनापूर्वक आत्मशुद्धि की जाती है और विचार एवं आचार की पूर्ण शुद्धि के साथ सर्वथा पापों के त्याग कर लिये जाते हैं।