SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और शील की आराधना करते हुए मरे अथवा शीलरहित अव्रत दशा में मरे । दोनों दिशामें मरना तो अवश्य है । तब कायर की तरह बिलखते मरने की अपेक्षा संयमशील हो कर धैर्य से हंसते हुए मरना ही अच्छा है । कहा भी है: धीरेणं वि मरियवं, काउरिसेण वि अवस्स मरियवं । दुल्हपि हु मरियो, वरं खु धीरत्तणे मरि॥ ६४ ॥ सीलेण वि मरियवं निस्सीलेण वि अवस्स मरियर्छ । दुहंपि हु मरियवे, वरं खु सीलत्तणे मरिउं ॥ ६५ ॥ आतु० प. उर्दू कविने भी कहा है " हंस के दुनियां में मरा, कोइ कोइ रोके मरा ।। जिन्दगी पाई मगर, उसने जो कुछ हो के मरा ॥" विद्वानों को ऐसे ही मरण से मरना चाहिये । इस प्रकार मरनेवाले मर के भी अमरता के भागी होते हैं। अभ्युद्यत मरणविधि -(टिप्पण) विवेकी पुरुष जीवन की अन्तिम घड़ियों में पूरी सतर्कता रखते हैं ,क्यों कि उस समय की जरासी गलती बने-बनाये काम को बिगाड़ देती है। अतः ज्योंही उन्हें जीवन-यात्रा में लम्बे समय तक शरीर टिकनेवाला नहीं है ऐसा प्रतिभासित होता है, त्योंही बिना विलम्ब वे मरण को शानदार बनाने के लिये कटिबद्ध हो जाते हैं । तन, धन, परिजन और सम्मान से मन मोड़कर वे एक मात्र आत्मलक्षी हो जाते हैं । तब पराये गुणापगुण देखने की अपेक्षा उनको आत्मदर्शी होकर अपना निरीक्षण करना ही अधिक प्रिय होता है और जीवन की छोटी-मोटी कोई भी चूक हो उसको बिना संकोच के गीतार्थ के पास आलोचना द्वारा प्रगट करना और यथायोग्य प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि करना उनका प्रधान लक्ष्य होता है। जैसे सुयोग्य वैद्य भी अपनी चिकित्सा दूसरे से कराता है, वैसे ज्ञानसंपन्न साधक भी अन्य गीतार्थ के सम्मुख अपनी आलोचना करते और आत्मशुद्धि करते हैं। मरण की तैयारी के लिये शास्त्रों में पहले संलेखना का विधान है। वह जघन्य ६ मास और उत्कृष्ट १२ वर्ष की होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ वें अध्याय में कहा है कि १२ वर्ष की उत्कृष्ट संलेखना, मध्यम १ वर्ष और जघन्य ६ मास की होती है । जो इस प्रकार है-पहले ४ वर्ष दूध आदि विगई का त्याग किया जाता है और दूसरे चार वर्ष में उपवास, बेला आदि विचित्र तप किये जाते हैं । फिर दो वर्ष एकान्तर तप और पारणक में आयंबिल किया जाता है । इग्यारहवें वर्ष में ६ महीने का सामान्य तप किया जाता और
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy