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________________ संस्कृति भारत की अहिंसा संस्कृति । २९९ आदि प्रजापतिने संक्षेप में जिस उपरोक्त धर्ममार्ग का दिग्दर्शन कराया था, भारत के समग्र सन्त उसीका अनुकरण करते चले आये हैं और उसीकी सब को देशना देते चले आये हैं। इस तथ्य की जानकारी के लिये निम्न उदाहरणों का अध्ययन करना उपयोगी होगा। इस सम्बन्ध में भगवान् अरिष्टनेमि के समकालीन अंगिराऋषि के जिन उपदेशों का उल्लेख वैदिक साहित्य में मिलता है वह खास तौर पर अध्ययन करने योग्य है । (१) यह अंगिराऋषि एक ऐतिहासिक महात्मा हैं। यह कौरव-पाण्डव काल में भारतभूमि को शोभित कर रहे थे। ये क्षत्रियवंशी थे-क्योंकि मनुस्मृति ३. १९५-१९९ में पितरगणों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि अंगिरा का पुत्र हविर्भुज क्षत्रियों का पिता है । श्रमण संस्कृति के अनुयायी अन्य प्रसिद्ध क्षत्रियों के समान यह एक भिक्षाचारी तपस्वी साधु थे। ऋग्वेद के १० वें मण्डल का ११७ वां सूक्त जिसमें दान की महिमा का बखान किया गया है, इन्हीं की कृति है । इस सूक्त के ऊपर दिये हुए विवरण में इसके निर्माता अंगिराऋषि को भिक्षु कहा गया है। इस दानसूत में कहा है-जैसे रथचक्र ऊपर नीचे घूमता रहता है उसी तरह धन भी कभी स्थिर नहीं रहता। याचक को अवश्य धन-दान देना चाहिए । जो विना दान दिये केवल आप ही खाता है वह केवल पाप ही खाता है । " केवलायो भवति केवलादी" यह ऋषि ही या इनके वंशज अथर्ववेदीय मुण्डक उपनिषत् का प्रणेता प्रतीत होते हैं। इनके सम्बन्ध में छान्दोग्य उपनिषत् ३. १७. में बताया गया है कि ये देवकी पुत्र श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु थे। श्रीकृष्ण को भौतिक यज्ञों की जगह उस आध्या. स्मिक यज्ञ की दीक्षा दी थी जिसकी दीक्षा इन्द्रियसंपम, पापविरतिरूप ब्रतों से होती है और जिसकी दक्षिणा तपश्चर्या, दान, आर्जव (सरलता), अहिंसा और सत्यवादिता है। इस यज्ञ के करने से मनुष्य का पुनर्जन्म छूट जाता है। उसका संसारपरिभ्रमण खत्म हो जाता है। मौत का सदा के लिए अन्त हो जाता है । इसके अलावा इस ऋषिने श्रीकृष्ण को यह भी उपदेश दिया था कि मरते समय मनुष्य को तीन धारणायें धारण करनी चाहिएं अक्षितमसि, अच्युतमसि, प्राणसंशितमसि । अर्थात् हे आत्मन् ! तू अविनाशी है । तू सनातन है। तू अमर चेतन है। इस उपदेश को सुनकर श्रीकृष्ण का हृदय गद्गद् हो उठा था। इसी प्रकार महाभारतकारने अनुशासनपर्व अ. १०६, १०७ में अंगिराऋषि की दी हुई अहिंसा, दान, ब्रह्मचर्य, व्रत, उपवास सम्बन्धी जिन शिक्षाओं का उल्लेख किया है वे ऊपर बतलाई हुई शिक्षाओं से बहुत मिलती जुलती हैं। इससे प्रमाणित होता है कि महाभारत
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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