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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और वास्तव में तन एवं धन की हानि से मेरी कोई हानि नहीं होती। मैं सदा शुद्ध, बुद्ध एवं समरस हूँ। आग में जलना, पानी में गलना और रोग से सड़ना मेरा स्वभाव नहीं है । सड़ना, गलना, जलना आदि देह के धर्म हैं, अतः इस परमप्रिय देह का भी आज से स्नेह छोड़ता हूँ। मेरा न किसी पर राग है, न किसी पर द्वेष । इसी प्रकार के मरण से अंबड़ संन्यासी के ७०० शिष्योंने भी सुगति प्राप्त की थी। कंपिलपुर से पुरिमताल की ओर जाते समय जब उनके पास का पानी समाप्त हो गया और तृषा के मारे होठ-कंठ सूखने लगे, तब उन्होंने उस दुःखद स्थिति में निम्न प्रकार का पंडितमरण स्वीकार किया था। पहले गंगा के किनारे बालू को देखा, साफ किया और फिर पूर्वाभिमुख पर्यकासन से बैठ कर दोनों हाथ जोड़े हुए इस प्रकार बोले-" नमस्कार हो सिद्धिप्राप्त जिनवर को और नमस्कार हो सिद्धिगति पानेवाले श्रमण भगवान् महावीर को, फिर नमस्कार हो हमारे धर्माचार्य धर्मगुरु अम्बड़ परिव्राजक को । हमने पहले धर्मगुरु अम्बड़ के पास स्थूल हिंसा, झूठ, अदत्त, संपूर्ण मैथुन और परिग्रह का त्याग किया है । अब श्रमण भगवान महावीर के पास आजीवन सब प्रकार के हिंसा, झूठ, अदत्त, कुशील और परिग्रह का त्याग करते हैं। हम सर्वथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति, मायामृषा, और मिथ्यादर्शनशल्यरूप अकरणीय पापकर्म का आजीवन त्याग करते हैं। जीवन भर के लिये सब प्रकार का अनशनादि चतुर्विध आहार भी छोड़ते हैं और यह भी शरीर जो आज तक इष्ट, कांत एवं अत्यन्त प्रेमपात्र रहा जिसको सदा भूख, प्यास, सरदी, गरमी, दंशमच्छर, चोरव्याल और रोग-शोक से बचाते रहे, उस प्रिय तन की भी अन्तिम श्वासोच्छ्रास के साथ हम ममता छोड़ते हैं । अब कुछ भी हो, इस ओर ध्यान नहीं देंगे । यह पंडितमरण ग्रहण करने की विधि है। इस प्रकार वे संलेखनापूर्वक आमरण अनशन में काल की अपेक्षा नहीं करते हुए विचरते रहे । अन्तिम समय अनशनपूर्वक समाधिभाव में मरण पा कर ब्रह्मलोक के अधिकारी बने । उन्होंने अपना मरण सुधार लिया । आत्महत्या और समाधिमरण:--बहुत से लोग यह समझा करते हैं कि संथारा या भत्तपञ्चक्खाण से मरना यह आत्महत्या है । उनको समझना चाहिये कि आत्महत्या और समाधिमरण में बड़ा अन्तर है । आत्महत्या में निष्कारण शोक या मोहादिवश शरीर नष्ट किया जाता है। उसमें चिंता-शोक की आकुलता या मोह की विकलता होती है, जब कि समाधिमरण में भय, शोक को भूल कर प्रसन्न मन से सब को मैत्रीभाव से देखते हुए निर्मोह
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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