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संस्कृति
मरण कैसा हो ?
२९३ अन्तिम क्षण तक भौतिक कामना की आकुलता होने से ये अकाममरण से मरते हैं । अतः पंडितमरण के अधिकारी नहीं होते ।
___ संयमशील व्रती गृहस्थ या महाव्रतधारी साधु-साध्वी जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और • परिग्रह के पूर्ण त्यागी और जितेन्द्रिय हैं, आरंभ परिग्रह और विषय-कषाय से मन को मोड़ कर जिन्हों ने परमात्मा के चरणों में चित्त लगा दिया एवं ज्ञान के प्रकाश में जड़-चेतन का भेद समझकर तन, धन, परिजन से ममता हटाली है वे ही पंडितमरण के अधिकारी होते हैं । पंडितमरण में केवल विशुद्ध हेतु और प्रसन्नता के साथ देहत्याग किया जाता है। अतः इसे सकाममरण भी कहते हैं। सभी साधु और श्रावक पंडितमरण को प्राप्त नहीं करते, किन्तु पंडितमरण के अधिकारी कुछ विशिष्ट पुरुष ही होते हैं । जैसे कहा भी है
न इमं सवेसु भिक्खुसु, न इमं सवेसुऽगारिसु ।
नाणा सीला अगारस्था, विसम-सीला य भिक्खुणो ।। उ. ५ ॥
यह मरण सभी भिक्षुओं में नहीं होता, न सब गृहस्थों को होता है। कारण विभिन्नशील स्वभाव के गृहस्थ होते हैं और भिक्षुओं के भी संयमस्थान समान नहीं होते ।
देखिये हजार वर्ष का संयम पालन करके भी कुंडरीकने चन्द दिनों की भोग-भावना में मरण बिगाड़ लिया, परिणामस्वरूप उसको नरक में जाना पड़ा और पुंडरीकने जीवन का लम्बा समय भोग एवं राग में बिता कर भी अंतिम दिनों की पवित्र साधना से जीवन सुधार लिया और पंडितमरण से मरकर सुगति प्राप्त की । यह पंडितमरण की ही महिमा है ।
ज्ञानी कहते हैं-यदि तुम दुःख से ऊब गए हो, सहने की शक्ति खो चुके हो और मरना चाहते हो तो चिन्ता-शोक में देह को गला कर मरने की अपेक्षा तप-संयम में देह को विवेकपूर्वक गलाओ और ध्यानाग्नि में दुःख को जला कर हंसते-हंसते मरो, रोते हुए क्यों मरते हो।
विधिः- जब समझलो कि अब शरीर अधिक समय तक टिकनेवाला नहीं है अथवा धर्मरक्षा के लिये प्राणों का त्याग करना हैं तब सर्वप्रथम मन से बैरविरोध भुला कर अंतसस्मा को स्वच्छ बना लेना चाहिये । फिर तन, मन, धन, परिजनादि बाह्य वस्तुओं से मन मोड़ कर, आत्मस्वरूप में वृत्ति जमा कर, सदा के लिये अकरणीय पापकर्म और चतुर्विध प्रहार का त्याग कर लेना चाहिये।
अर्हन्त सिद्ध की साक्षि से यह निश्चय कर लो कि संसार के दृश्य पदार्थ सब पर और नाशवान हैं । उनको अपना समझ कर ही चिरकाल से मैं भटक रहा हूँ, यह मेरा अज्ञान है ।