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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और
सभी आर्या और सब प्रथम संहननहीन जीव तथा सब देशविरति भक्तप्रत्याख्यान को ही प्राप्त करते हैं ।
पादोपगमनवाले को कभी पूर्वभव के बैर से कोई देव पातालकलशों में संहरण कर दे तो वह उपसर्ग को सम्यक् प्रकार से सहन करता है । उस समय ऐसा सोचता है कि जैसे तलवार म्यान से भिन्न है, ऐसे जीव शरीर से भिन्न है; अतः उपसर्ग से मेरी कोई हानि नहीं होती । जैसे मेरु पूर्वादि चारों दिशा की प्रचण्ड वायु से कम्पित नहीं होता, वैसे पादोपगमनवाला उपसर्ग में भी ध्यान से चलायमान नहीं होता है ।
इनका आदर्श होता है उग्रतम कष्ट के समय भी अविचल रहकर मरण का आलिंगन करना | देखिये, कृष्ण वासुदेव के लघुभाई गजसुकुमारने मरणान्त कष्ट के समय भी कैसी अखण्ड शांति कायम रक्खी। भगवान् नेमनाथ की अनुमति लेकर जब महामुनि महाकाल श्मशान में ध्यान लगाकर देहह-भान को भुलाकर आत्मध्यान में तल्लीन हो गये, उस समय सोमल ब्राह्मण उधर से निकला और महामुनि को देखते ही क्रोध से जल उठा । उसने गीली मिट्टी लेकर मुनि के शिर पर बाँधी तथा अंगारे रख दिये । शिर जलने लगा और नसें खिंचने लगीं, फिर भी मुनिजी के मन में उफ तक नहीं; क्योंकि उन्होने क्रोध, मान, माया, लोभ के आंतर विकारों को जला दिया एवं प्राणीमात्र को आत्मसम समझ लिया था। अंतर में एक ही आवाज गूंजती थी कि - " मैं एक और शाश्वत हूँ। मेरा स्वरूप ज्ञान, दर्शन है। धन, दारा और परिवार आदि सब बाह्यभाव पर हैं । और वे संयोग सम्बन्ध से अपने व पराये होते हैं । वास्तव में ये मेरे नहीं। ज्ञान, दर्शनरूप उपयोग स्वभाव ही मेरा है। जो न कभी जलता है और न कभी गलता है । कहा भी है
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" एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बहिरा भावा, सधे संजोगलक्खणा ||
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अंग अंग के जलने पर भी गजसुकुमाल की प्रसन्नता अविचल रही और क्षणों में ही अखण्ड समाधि के साथ उन्होंने सकल कर्म क्षय कर मुक्ति प्राप्त करली |
अधिकारी - वे लोग इसके अधिकारी नहीं होते, जिनका जीवन हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि पापों में रचा-पचा होता है। जो अजितेन्द्रिय होकर अभक्ष्य भक्षण करता और विषय कषाय में रति मानता है वैसे असंयमशील प्राणियों का अंतिम समय में हाहाकार करते प्रयाण होता है । उनको पंडितमरण प्राप्त नहीं होता । अतः यह बालमरण है । क्रोध, लोभ या मोह और अज्ञान के वश जो आत्म-हत्याएं की जाती हैं वे सब भी बालमरण हैं ।