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________________ संस्कृति मरण कैसा हो? २९१ परीक्षा में फेल होकर कई विद्यार्थी प्रतिवर्ष जीवन समाप्त करते सुने जाते हैं। इस प्रकार इच्छा से मरनेवालों की संख्या कम नहीं हैं। वास्तव में ये सब अकाम-मरण या बालमरण हैं। इस प्रकार चिन्ता, शोक या अभाव में झुलस कर कई मानव अपनी जीवन-लीला समाप्त करते हैं । सचमुच यह देश और समाज के लिये कलंक की बात है। समाज और राष्ट्रनायकों को इसका उचित हल निकालना चाहिये । ऐसे अविवेकपूर्वक अकाममरण से मरना दुःख घटानेवाला नहीं होता । इससे तत्काल ऐसा प्रतीत होता है कि मर जाने से मैं अपनी आंखों यह दुःख नहीं देख पाऊँगा; किन्तु उसे ध्यान रखना चाहिये कि अकाममरण से वर्तमान का दुःख लाखों गुणा होकर फिर सामने आ सकता है । जब कि आज का विचारपूर्ण समर्थ मन भी नहीं रह पाता । सच बात यह हैं कि दुःख भगने से नहीं छूटता, वह तो शांतिपूर्वक भोगने से छूटता है। पंडितमरण और उसके प्रकार:-भगवतीसूत्र के द्वितीय शतक, प्रथम उद्देश में प्रभुने खंदक संन्यासी को मरण का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि-पंडितमरण दो प्रकार का है-पादोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान । नीहारिम और अनीहारिम रूप से पादोपगमन दो प्रकार का है । यह प्रतिकर्म रहित ही होता है। भक्तप्रत्याख्यान नीहारिम और अनीहारिम दोनों प्रकार का सप्रतिकर्म होता है-अर्थात् इसमें शरीर की हलन-चलन रूप चेष्टाएं तथा सार-संभाल होती हैं। इन दोनों प्रकार के पंडितमरण से मरनेवाला जीव अनन्त-अनन्त नरक, तिथंच आदि के जन्म-मरण से आत्मा को विमुक्त करता यावत् संसार को पार करता है । भक्त प्रत्याख्यान आदि का स्वरूप एवं भेद निम्न दिये जाते हैं। भक्तप्रत्यानख्यान-जिसमें तीन या चार प्रकार के आहारमात्र का त्याग होता है, और शरीर का हलन-चलन बन्द नहीं किया जाता उसे भक्तप्रत्याख्यान कहते हैं। इंगितमरण-इसमें सर्वथा खाने-पीने का त्याग किया जाता और मर्यादित क्षेत्र के अतिरिक्त शरीर से गमनागमन आदि चेष्टा भी नहीं की जाती है । पादोपगमन में यह विशेषता है कि वह शरीर की कोई चेष्टा नहीं करता, न करवट ही बदलता है। दूसरा भले कोई उसे इधर से उधर बैठा दे या करवट बदल दे, किन्तु स्वयं वह कोई चेष्टा नहीं करता, वृक्ष की तरह अडोल पड़ा रहता है। __ भक्तप्रत्याख्यान में जलाहार लिया जाता है और वह सागारी भी होता है। किन्तु इंगितमरण और पादोपगमन में कोई आगार नहीं होता, न कोई जलाहार ही ग्रहण किया जाता है । भक्तप्रत्याख्यान सर्वदा सबके लिये सुलभ है; परन्तु इंगितमरण एवं पादोपगमन प्रथम ३ संहनन में और विशिष्ट श्रुतधारी को ही होते हैं। व्यवहार भाष्य में कहा है कि
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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