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________________ २९० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ दर्शन और कहा है कि तपस्वी निग्रन्थों को ऐसे मरण से नहीं मरना चाहिये । वे मरण निम्न प्रकार हैं - १. बलयमरण, २. वशार्तमरण, ३. निदानमरण, ४. तद्भवमरण, ५. गिरिपतन, ६. तरुपतन, ७. जलप्रवेश, ८. अभिप्रवेश, ९. विषभक्षण, १०. शस्त्रघात, ११. वैहायस, १२. गृद्धपृष्ठमरण । बलायमरण आदि का स्वरूप इस प्रकार है: ( १ ) भूख प्यास आदि परिषों से घबरा कर असंयम सेवन करते मरना बलामरण है । (२) पतङ्ग आदि की तरह शब्दादि विषयों के अधीन होकर मरना वशार्तमरण है, जैसे किसी कामिनी के पीछे कामी का प्राण गंवाना । ( ३ ) ऋद्धि आदि की प्रार्थना करके सम्भूति मुनि की तरह मरना निदानमरण है । ( ४ ) जिस भव में है उसी जन्म ( योनी ) का आयु बांध कर मरना तद्भवमरण है । ( ५ ) पर्वत से गिर के मरना । ( ६ ) वृक्ष से लटक कर मरना । ( ७ ) जल में डूब कर मरना । ( ८ ) आग में सती आदि की तरह जीते जल मरना । ( ९ ) विष खा कर मरना । (१०) शस्त्र से आत्महत्या कर लेना । ( ११ ) फांसी लेकर मरना । ( १२ ) पशु के कलेवर में गीध आदि का भक्ष्य बन कर मरना । उपरोक्त १२ प्रकार के मरण से मरनेवाला जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के अनन्त २ जन्म करता हुआ चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है । इस प्रकार यह 6 'बालमरण' संसार को बढ़ानेवाला है । भगवान् महावीर कहते हैं - " कौटुम्बिक झगडों से तंग आकर या धन- -हानि, जन-हानि और मान-हानि की व्याकुलता में मरना दुःख को घटाना नहीं बढ़ाना है " - यह ' पंडितमरण नहीं बालमरण ' है । माता, पिता, पुत्र या पति, पत्नी आदि प्रियजन के वियोग में मर जाना अथवा मृत पति के साथ जीते जल जाना भी उत्तम मरण नहीं है । बहुतसी बार मनुष्य शोक, मोह और अज्ञान के वश भी प्राण गमा देता है । व्यापार, धंधे में हानि उठाकर लेनदारों को देने की अक्षमता से सैंकडोंने मान-प्रतिष्ठा की आग में प्राणों की बलि कर दी और करते जाते हैं । अर्थाभाव में पारिवारिक भरण-पोषण और कर्जदारी की चिंता से भी कई हलाहल पी कर मरण की शरण ले लेते हैं। घर की लड़ाई-झगड़ों से तंग आकर और दुःख में ऊब कर भी कई ललनाएँ तेल छिटक कर जल मरती हैं। नौकरी नहीं मिलने से कई शिक्षित युवक और १. दो मरणाई समणेणं भगवया महावीरेणं समगाणं णिग्गंथाणं णो निश् पणियाई, णो णिचं कित्तियाई, णो णिचं पूइयाई, जो णिचं पसत्थाई, णो णिचं अब्भणुन्नायाई भवति । तंजहा - बलायमरणे चेव, वसट्टमरणे चैत्र १, एवं णियागमरणे चेव, तब्भवमरणे चैत्र २, गिरिपडणे चेव, तरुपडणे चैत्र ३, जलप्पवेसे चेत्र, जलगप्पवसे चे ४, विसभक्खणे चेव, सत्थोवाढने चेव ५ । दो मरणाई० जावणो णिचं अब्भणुन्नायाहं भवंति, कारणेग पुण अप्पडकुट्ठाई । जहा - वेहाणसे चेव, गिद्धपट्टे चेव ६ ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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