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________________ २८८ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और न मरण; फिर भी संसारावस्था में शरीरधारी जीव का शरीर की अपेक्षा जन्म और मरण कहा जाता है । संक्षेप में कहना चाहिये कि वर्तमान शरीर को छोड़कर जीव का प्रयाण कर जाना ही मरण है। प्रकार:-जैनशास्त्रों में मरण पर बहुत गंभीर विचार किया गया है। श्रीस्थानाङ्ग, श्रीभगवती, श्रीउत्तराध्ययन आदि अंगोपांग सूत्रों के अतिरिक्त जैनाचार्योंने मरण पर स्वतंत्र प्रकरण भी लिखे हैं। मरणविभत्ति, भत्तपच्चक्खाण और समाधिमरण उनमें खास उल्लेख योग्य हैं। यह निश्चित है कि संसार में दृष्टिगोचर होनेवाले पदार्थ मात्र एक दिन विलय होने वाले हैं। अचेतन में जड़ होने से हर्ष, शोक के भाव उत्पन्न नहीं होते। चेतन होने से जीव को ही हर्ष, शोक होते हैं । इसलिये यहां इसी के मरण का विचार करना है । आत्म. दर्शी महात्माओंने कहा है कि मरण केवल दुःखदायी ही नहीं वह सुखप्रद भी होता है । अज्ञानी और ज्ञानी की दृष्टि से मरण भी बुरा और भला होता है। अज्ञानी पर्यायदृष्टिप्रधान होने से प्राण-वियोग पर रोता और दुःख करता है, वहाँ ज्ञानी दिव्यदृष्टि की प्रधानता से धन, जन, प्राण के वियोग में भी प्रसन्न रहता है, सदा समरस रहता है। ठीक ही कहा है कि अज्ञानी मरण से डरते हैं, जब कि ज्ञानी उसको सहर्ष गले लगाते हैं। कारण, ज्ञानी समझता है कि मैं तो त्रिकाल सत्य हूँ, इस शरीर के पहले भी था, अब भी हूँ और शरीर छूटने पर भी रहूँगा, फिर सुकृताचरण से मैं कृतकृत्य हो चूका हूँ, अतः मुझे मरण से घबराने की कोई आवश्यकता नहीं । कहा भी है-"मरणादपि नोद्विजते कृतकृत्योऽस्मीति धर्माऽत्मा" शास्त्रों में मरण का विस्तार निम्नरूप से किया है: भगवतीसूत्र में मरण के ५ प्रकार बतलाए हैं। जैसे-१ आवीचिमरण, २ अवधिमरण, ३ आत्यन्तिकमरण, ४ बालमरण, ५ पंडितमरण । प्रथम तीन प्रकार के मरण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव भेद से पांच २ प्रकार के बतलाये गए हैं। प्रति समय आयुकर्म के दलिकों का क्षीण होते जाना यह आवीचिमरण है। १. कइविहेणं भंते ! मरणे पण्यत्ते? गोयमा! पंचविहे मरणे पण्णत्ते। तं जहा-आवीचियमरणे, ओहिमरणे, आदितियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे। आवीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पष्गत्ते ? । गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते ! तं जहादवावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे । दवावीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पन्गत्ते? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते। तं जहा-णेरइयदव्यावीचियमरणे, तिरिक्खजोणियदव्यावीचियमरणे, मणुस्सदव्वावीचियमरणे, देवदवावीचियमरणे । से के गढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णेरइयदव्वावीचियमरणे ? गोयमा ! जण्णं णेरडया णेरइए दव्वे वट्टमागा जाई दवाई णेरइयाउयताए गहियाई बद्धाई पुट्ठाई कडाई पट्ठवियाई निविट्ठाई अभिणिविट्ठाई अभिसमण्णागयाइं भवंति, ताईदव्वाइं आवीचि अणुसमय णिरंतरं मरंतीतिकठ्ठ, से तेगडेणं गोयमा । एवं वुच्चइ-णेरइय
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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