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________________ मरण कैसा हो ? उपाध्याय श्री हस्तीमलजी महाराज संसार में संभव ही कोई प्राणी हो जो मरण को नहीं जानता हो। छोटे से छोटे कीट, पतंग से लेकर नरेन्द्र, असुरेन्द्र और देवेन्द्र तक भी इसके प्रभाव से प्रभावित हैं। भयंकर से भयंकर रोग में फंसनेवाला असहाय रोगी भी मरना नहीं चाहता । भले उसे कितना ही रोग, शोक, वियोग या अपमान सहना पड़े। फिर भी वह प्राणी यही चाहेगा कि मरूं नहीं । कारण मरण सब से बड़ा भय है। कहा भी है:-'मरण समं नथिभयं'। मरण से बचने के लिये मनुष्य हर संभव उपाय को करने के लिये तैयार रहता है। उसने मृत्युञ्जय और महामृत्युञ्जय के भी पाठ कराये, सुसज्जित सेनाओं के बीच अपने को सुरक्षित रक्खा; फिर भी मरण से नहीं बच पाया । मरण के सामने मंत्रबल, तंत्रबल, यंत्रबल और शस्त्रबल सभी बेकार हैं । कहावत भी है:- काल वेताल की धाक तिहुँ लोक में ।' सच है जगत के जीवमात्र मरण का नाम सुनते ही रोमांचित हो जाते हैं। किन्तु ज्ञानी कहते हैं-" मृत्योर्विमेषिकिं मूढ !" मूर्ख ! मृत्यु से क्यों डरता है ! यह तो पुराना चोला छोड़कर नया धारण करना है। इसमें भयभीत होने की क्या बात है ! निर्भय और निर्मल भाव से कर्त्तव्य पालन कर, फिर देख कि मरण भी तेरे लिये मङ्गल महोत्सव बन जायगा। अतः यह जानना आवश्यक है कि मरण क्या है और वह कितने प्रकार का है। तथा उत्तम मरण कैसा होना चाहिये । जैनशास्त्र कहते हैं कि संसार का कोई भी द्रव्य सर्वथा नष्ट नहीं होता । अतः प्रश्न होता है कि ' मरण ' जिसको कि नाश कहते हैं कैसे संगत होगा ! कारण द्रव्य का लक्षण ' उत्पाद, व्यय, ध्रौव्ययुक्त सत् ' कहा है । उसका कभी नाश नहीं होता, तब मरण क्या हुआ! यहां मरण का अर्थ आत्यन्तिक तिरोभाव या अदर्शन है । जब आयु पूर्ण कर जीव किसी शरीर से अलग होता है याने जीव या प्राणों का शरीर से सर्वथा संबंध छूट जाता है उसे मरण कहते हैं। यद्यपि आत्मा अजर, अमर और अजन्मा है। वास्तव में उसका न जन्म है और (३८)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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