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________________ जीवों की वेदना ५० मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराज " कमल " विद् ज्ञाने धातु से वेदना शब्द की निष्पत्ति होती है। अतः स्वतः सिद्ध है कि जड़ चैतन्यमय इस जगत में केवल चैतन्य ही संवेदनशील है। क्योंकि-" जीवो उवओग. लक्खणो" इस आगम वाक्य से चैतन्य का लक्षण ही उपयोग अर्थात् अनुभूति कहा गया है। इष्ट, अनिष्ट पुद्गल का संयोग होने पर मन और इन्द्रियों के माध्यम से चैतन्य को जो अनुभूति होती है उसे ही वेदना कहते हैं। - यदि अभेद विवक्षा से कहा जाए तो वेदना एक सामान्य शब्द है; अतएव वेदना का एक ही प्रकार है । और भेद विवक्षा से कहा जाए तो वेदना के अनेक मेद हो सकते हैं। किन्तु वेदना शब्द के श्रवण मात्र से सर्वसाधारण को जो अवबोध होता है वह केवल सुख-दुःख की अनुभूति का होता है, अत एव वेदना संबंधी विविध विचारों का मूल यही अनुभूति है। सुख-दुःख की अनुभूति यद्यपि प्राणीमात्र को होती है और प्राणीमात्र को सुख प्रिय एवं दुःख अप्रिय है । किन्तु सुख-दुःख की परिभाषा क्या है ! १. सुख-दुःख के देनेवाले कौन हैं ! २. सुख-दुःख के निमित्त एवं उपादान क्या हैं ! ३. और सुख-दुःख की अनुभूति सबको समान होती है या नहीं ! प्राणी जगत् की इन जटिल पहेलियों का हल भगवान् महावीर और उनके समकालीन विचारकोंने निकाला है उसीका संक्षिप्त संदर्भ जैन आगमों से उद्धृत कर यहां प्रस्तुत किया है। सापेक्ष वेदना जैन आगमों में प्रत्येक वस्तु के गुण-धर्म का चिन्तन निरपेक्ष नहीं होता, अपितु किसी एक अपेक्षा को लेकर होता है; अत एव जैनों का सापेक्षवाद सुप्रसिद्ध है । प्रस्तुत वेदना विषयक कथन भी सापेक्ष है। वैषयिक सुख का अभिलाषी वैराग्यमय जीवन को दुःखी जीवन मानता है-'पवज्जा हु दुक्खं ', उत्त० । और आध्यात्मिक सुख का अभिलाषी भोगमय जीवन को दुःखी जीवन मानता है-' सवे कामा दुहावहा', उत्त० । जो पुद्गल एक को इष्ट हैं, वे दूसरे को अनिष्ट (३७)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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