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________________ संस्कृति अपरिग्रह । ૨૭૨ विदेशीय सता थी और सहस्रों वर्ष उनने यहां पर शासन किया । शासन में जो होता है वही उनने किया । अन्त में यही निश्चय किया कि यह पर है, इस को त्यागना ही श्रेयस्कर है । अन्त में अत्यंत निर्मलता के साथ छोड़ कर चले गये और इतिहास में अपूर्व उदा. हरण लिखवा गये। यदि इसी दृष्टान्त को हम अपने ऊपर लागू करें, तब जगत् के पदार्थों को छोड़ने में विलम्ब करना अच्छा नहीं। यह जो दृष्टान्त दिया उस का अन्तर्दृष्टि से विचार करो । तब यही आवेगा कि परवस्तु को अपनाना ही संसार का मूल है । सारांश लिखना इसमें बहुत है, परन्तु लिखने में असमर्थ हैं । सार यही है___ " दुःख का मूल परिग्रह है और सुख का मूल अपरिग्रह । " जो पदार्थ पर हैं वे खो भिन्न हैं ही । उनका त्याग करना तो हो ही रहा है। जिन भावों से उन्हें निज मानते हो वे रागादिभाव जो विकृतभाव हैं और आत्मा को अनंत संसार का पात्र बनाते हैं उन्हें स्यागो । उनका त्याग ही परिग्रहत्याग है । इसीका नाम अपरिग्रह है। इसके होने पर आस्मा को वह शान्ति मिलती है जिसका अनन्तवां भाग भी इन्द्र, चक्रवर्ती महाराजा को दुर्लभ है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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