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________________ ર૭૨ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और मेरी बुद्धि में यही आया जो परिग्रह संचय करनेवाला है वह चाहे सुखी हो, चाहे दुःखी । हम अपने समय को आत्मनिर्मलता करने में लगाते जिससे शांति पाते-सो तो किया नहीं। केवल अन्य की कथा करके व्यर्थ दुःख के पात्र बनते हो। मोही जीवों की यही दुर्दशा होती है । परन्तु अपनी दुर्दशा का अनुभव नहीं करता । केवल जगत को दुःखी मानकर उनके दुःख निवारणार्थ प्रयत्न करता है। वे इसके प्रयत्न से चाहे सुखी हों, चाहे दुःखी हों। वे जानें, पर आप तो नियम से दुःखी हो जाता है । इस लेख को लिखकर मुझे तो कुछ आनन्द नहीं आया । क्यों ! मैं स्वयं परिग्रही बन गया । प्रथम तो इस लेख को लिखने में अन्य विचारो से चित्त को हटा कर इसी लेख की चिन्ता में लग गया। लिखने के वास्ते कागजों की याचना करनी पड़ी। स्याही की आवश्यकता हुई । अन्य कार्यों में समय को न लगा कर इसी में लगाने की चिन्ता हुई। यह सर्व हो कर यह चिन्ता हुई कि लोग प्रसन्न होंगे या नहीं, कोई अप्रसन्न तो न हो जावेगा। आगम तो यह कहता है जो गुरुविनय, गुरुवाक्य, परोपकार के कार्य, आगम-रचना यह भी परिग्रह हैं । सम्यग्दर्शन के होते ही परपदार्थ मात्र में उपेक्षा आजाती है । अन्य का विकल्प छोड़ो। जो महाव्रतों का पालना यह भी परिग्रह है; क्यों कि संज्वलन कषाय के उदय में यह भाव होता है जो बन्ध का जनक है। यह जाने दो । जो अपायविचय में यह भाव होते हैं कि कैसे यह प्राणी संसार मार्ग से च्युत होकर मोक्षमार्ग में आवे ! यह भी परिग्रह है-बंध का कारण है। अतः जिन्हें अपरिग्रह का आनंद लेना हो, उन्हें उचित है कि वे परिग्रह की अभिलाषा परित्याग करदें । तदुक्तं परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मृढस्य दृश्यते । देहे विगलिताशस्य क रागः क विरागिता ? ॥ जो मूढ़ हैं उसके परिग्रह में वीतरागभाव देखा जाता है। जिस को देह में आस्ता नहीं हैं उसके न किसी से राग है और न किसी पदार्थ में विराग है । जो शरीर को आत्मीय धन मानता है उसी के अनेक प्रकार के भाव देखे जाते हैं। कभी तो राग और कभी द्वेष करता है । जिसके परपदार्थ से भिन्न निज का परिचय हो गया है वह शरीर में निज को नहीं देखता । जब पर में परत्वबुद्धि और आप में निजत्वबुद्धि हो गयी, तब परवस्तु चाहे छिद जावे, चाहे भिद जावे, चाहे विप्रलय को प्राप्त हो जावे हमें दुःख नहीं होता । अतः सिद्धान्त यह निकला कि परवस्तु को जानना बुरा नहीं। उसे निज मानना ही अनर्थ परम्पराओं का मूल है। आज जगत् मात्र दुःखी क्यों है ! परको अपनाता है। भारत में
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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