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________________ २७५ संस्कृति जीवों की वेदना। हैं और जो एक को अनिष्ट हैं, वे दूसरे को इष्ट हैं। जैसे-नीम के पत्ते मनुष्य को कड़वे लगते हैं और ऊंट उन्हें बड़े चाव से खाता है। अत एव सुख-दुःख सदा सापेक्ष होते हैं। सुख-दुःख का प्रत्यक्ष दर्शन राजगृह में कुछ ऐसे दार्शनिक थे जो भगवान् महावीर के मन्तव्यों के आलोचक थे। वे जनसाधारण के सामने भगवान् महावीर पर ऐसा आक्षेप करते थे कि यदि महावीर सर्वज्ञ या सर्वदशी हैं तो राजगृहनिवासियों को बोर यावत् जूं, लीख जितने परिमाण में भी सुख-दुःख का प्रत्यक्ष दर्शन करा दें। भगवान् महावीर इस आक्षेप का परिहार इस प्रकार करते थे: हे गौतम ! सारे संसार में भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कभी किसी व्यक्ति को सुखदुःख का प्रत्यक्ष दर्शन करा सकता हो; क्योंकि ज्ञान अमूर्त होता है और सुख-दुःख का अनुभव भी उपयोग-ज्ञानरूप होता है। इस संबंध में भगवान् महावीरने यह युक्ति भी दी हैं: जिस प्रकार एक महान् शक्तिशाली देव सुगन्धित द्रव्यों से भरे हुए डिब्बे का ढकन खोलकर केवल तीन चुटकियों में संपूर्ण जम्बूद्वीप की इक्कोस परिक्रमा करता हुआ उस डिब्बे के सुगंधित पुद्गलों को सारे जम्बूद्वीप में फैला देता है, फैले हुए उन मूर्त सुगन्धित पुद्गलों को एकत्र करके कोई मानव किसी भी मानव को बोर यावत् जूं, लीख जितने परिमाण में यदि प्रत्यक्ष नहीं दिखा सकता है तो सुख-दुःख के अमूर्त अनुभव को मूर्त रूप में कैसे प्रत्यक्ष करा सकता है। (भग० श० ६, उ० १०.) सुख-दुःख का कर्ताः ___ भगवान् महावीर के समय में राजगृह में अनेक दार्शनिक थे । उनमें से कुछ दार्शनिकों का यह मन्तव्य था कि प्रत्येक व्यक्ति को सुख-दुःख का देनेवाला ईश्वर है अथवा व्यक्ति के इष्ट देवी-देवता या स्वजन-संबंधी प्रसन्न होने पर सुख और अप्रसन्न होने पर दुःख देते हैं । किन्तु इस संबंध में भगवान महावीर का क्या मंतव्य है यह जानने के लिये गौतम गणधरने भगवान् महावीर से एक समय पूछाः भगवन् ! जीवों को जो सुख-दुःख है, वह आत्मकृत है अपना किया हुआ है, परकृत या उभयकृत है ! हे गौतम ! जीवों को जो सुख-दुःख है वह आत्मकृत है; किन्तु परकृत या उभयकृत नहीं है। और यही स्थिति चौवीस दण्डक में स्थित समस्त सांसारिक जीवों की है अर्थात् भगवान् महावीर की यही मान्यता थी कि सभी जीव अपने ही किये हुए कर्मफल से सुखी
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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