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________________ संस्कृति अपरिग्रह । परिग्रह से संयम का घात होता है। यह इस श्लोक से दिखाया गया है। काय के हलनचलन व्यापार से जीव के घात होने पर निश्चय से बन्ध हो वा नहीं हो; किन्तु परिग्रह से नियम से बन्ध होता है । प्रमत्तयोग होने से हिन्सा होती है। यदि प्रमत्तयोग नं हो तो हिंसा नहीं होती। परन्तु परिग्रह का रखना ममत्व परिणाम के विना नहीं होता; अतः परिग्रहत्याग ही धर्म का मूल है। परमार्थ से देखा जावे तो शान्ति के उपाय परिग्रहत्याग में ही हैं । जब हम को किसी पदार्थ को देखने की लालसा होती है, हम जब तक उस पदार्थ को नहीं देख लेते, व्याकुल रहते हैं । इसका मूल कारण देखने की लालसा है। जब हम विषयीभूत पदार्थ को देख लेते हैं, निराकुल हो जाते हैं। इससे सिद्ध हुवा कि देखने की लालसा का परिग्रह ही दुःख का मूल कारण था। उसको मिटने से हम निराकुल हुये । यही पद्धति सर्वत्र जानना चाहिए। इसी प्रकार जो बाह्य पदार्थ को रखते हैं, उनको उस पदार्थ की लालसा है-वही बन्ध का जनक है। कहां तक लिखें ! आचार्योंने जो कुछ परोपकार आदि किये वे भी परिग्रह ही में अंतर्भूत हो जाते हैं। आत्मा जो परोपकारकार्य में प्रवृत्ति करता है इसका मूल कारण परोपकार करने की लालसा है । और लालसा नाम इच्छा का है । इच्छा आभ्यंतर परिग्रह है । परिग्रह ही दुःख की खानि है । जब तक वह काम न करे, आत्मा में शान्ति नहीं; अतः महर्षियोंने परोपकार किया अपने ही दुःख मेटने के लिये । व्यवहार में कुछ किया कहो । अन्य कथा छोड़ो। आज जो संसार में धार्मिक कार्यों की उत्पत्ति होती है उसका मूल कारण परिग्रह है। यहां तक कि केवली भगवान् की दिव्य ध्वनि के द्वारा संसार के कल्याण का यदि कोई उपदेश होता है-वह भी कैसे ! यदि ऐसा कहे तो विचार कर उत्तर यही होगा कि वह भी मोह में बांधी प्रकृति का उदय है । प्रवचनसारादि ग्रन्थों में महाव्रतादिक होना भी परिग्रह कहा है। व्रतों का होना संज्वलन कषाय के उदय का कार्य है । वास्तव में देखा जावे तो महाव्रतादि चारित्र नहीं । चारित्र में मल है। जब तक यह मल दूर न होगा, आत्मा यथाख्यात चारित्र का अधिकारी नहीं। चारित्र तो वह है जहां कषाय का लेश नहीं । अन्य कथा छोड़ो। प्रवचनसार में कहा है किं किंचणत्ति तकं अपुण्ण भवकामिणोऽथ देहस्म । संगत्ति जिणवरिंदा अप्पडिकम्मत्ति मुट्ठिा ॥
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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